मैं किस गली आऊँ कि,
तुम मुझे स्वीकार लोगी,
सूनी पड़ी ग्रीवा में
बांहों का कोमल हार दोगी।
क्या यत्न करूँ मैं कि
तुम मुझे अभिसार दोगी,
जलते हृदय को अपनी
करुणा की शीतल धार दोगी।
क्या चित्र मैं खीचूँ कि
तुम उसे विस्तार दोगी,
प्यासे पथिक को अविरल
सरस तुम मधु प्यार दोगी।
कौन-सी मिट्टी बनूँ कि
तुम मुझे आकार दोगी,
सहारे को मुझे तुम
अपना मनोरम संसार दोगी।
कौन-सी सृष्टि रचूँ कि
तुम उसे श्रृंगार दोगी,
पूर्ण करने को मुझे तुम
मम हृदय का आभार लोगी।
मैं किस गली आऊं कि
तुम मुझे स्वीकार लोगी....
तुम मुझे स्वीकार लोगी,
सूनी पड़ी ग्रीवा में
बांहों का कोमल हार दोगी।
क्या यत्न करूँ मैं कि
तुम मुझे अभिसार दोगी,
जलते हृदय को अपनी
करुणा की शीतल धार दोगी।
क्या चित्र मैं खीचूँ कि
तुम उसे विस्तार दोगी,
प्यासे पथिक को अविरल
सरस तुम मधु प्यार दोगी।
कौन-सी मिट्टी बनूँ कि
तुम मुझे आकार दोगी,
सहारे को मुझे तुम
अपना मनोरम संसार दोगी।
कौन-सी सृष्टि रचूँ कि
तुम उसे श्रृंगार दोगी,
पूर्ण करने को मुझे तुम
मम हृदय का आभार लोगी।
मैं किस गली आऊं कि
तुम मुझे स्वीकार लोगी....