Sunday, October 25, 2009

कैसे लिखूं.........

कुछ मैं भी लिखना चाहता हूँ, कहना चाहता हूँ, लेकिन पहले मुझे लोगों को सुनना भी होगा। यह कम थोड़ा मुश्किल जरुर है, उतने ही काम का है। कुछ भी लिखने से पहले लोगों को समझना पड़ता है, उनके अनुभवों में ख़ुद को ढालना पड़ता है। यहीं आत्मानुभूति की बात आती है। कोई कहता है कि साहित्य आत्मानुभूति होती है, कोई इसे परकीय-प्रवेश विद्या कहता है। इस लिए कभी-कभी उलझन में फँस जाता हूँ। क्या सही है, और क्या ग़लत।
अगर इसे पूर्णतया अनुभूति से जोड़ दिया जाए ,तब तो लिखने में भी काफ़ी दिक्कतें आ सकती हैं। एक अकेला आदमी कहाँ-कहाँ से अनुभव इकट्ठा करे, और तब जाकर लिखे। इसमे तो सारी जिन्दगी ही पार हो जायेगी। छूट तो थोडी बहुत लेनी ही पड़ती है, लेकिन छूट की परिधि तय कर पाना काफ़ी मुश्किल काम है। कैसे लिखूं , क्या लिखूं...यह सब सोचना पड़ता है। यही पर शायद समाज की जरुरत पड़ती है। अकेला आदमी समाज से उन अनुभवों का निचोड़ लेकर अपना बहुमूल्य समय बचा पाता है। मैं भी इस कोशिश में लगा रहता हूँ , कि दूसरों को भी महसूस करुँ। कहूँ तो, आत्मानुभूति और परकीय-प्रवेश विद्या का सम्मिश्रण होना चाहिए

बस इसी खोज में लगा हुआ हूँ.......तब तक अनगढ़ ही सही..........