Sunday, August 24, 2008

गीत मेरे प्राण गाओ

गीत मेरे प्राण गाओ
व्यथित मन की इस व्यथा को
मुदित होकर तुम सुनाओ.
गीत मेरे प्राण गाओ

तिमिर छाया है गहन यह,
भूला मैं निज राह को हूँ,
संगी खोजता भ्रमित मैं
राह में एकाकी खडा हूँ।
भ्रमित मन की इस तृषा को
मुदित होकर तुम सुनाओ।
गीत मेरे प्राण गाओ।

ना शिखर पर, ना ही
तल पर,
मैं खड़ा मँझधार में हूँ,
प्राण मेरे पथ सुझाओ,
मैं अगम संसार में हूँ।
अवनत मन की इस दशा को
सहज होकर तुम सुनाओ।
गीत मेरे प्राण गाओ।

प्रश्न अंकित हैं अन्तर में,
अन्जान उसके हल से मैं हूँ,
भाव मेरे तुम ही सकल हो,
बिन तुम्हारे शून्य मैं हूँ।
अनाथ मन की उलझन को
नाथ बनकर तुम हटाओ।
गीत मेरे प्राण गाओ।

अन्जान अब तक ख़ुद से मैं,
राहें कँटीली ही मिली हैं।
वन-विजन, सकल शून्य भुवन में,
कली कंटक से छिदीं हैं।
पीडित मन की वेदना को
हसित मन से तुम सुनाओ।
गीत मेरे प्राण गाओ।

हूँ व्यथित मैं निज हृदय में,
क्या लेना इस से जग को है।
गरल पान करता चला हूँ,
भावामृत देना जग को है।
विकल मन की भावना को
सरल होकर तुम सुनाओ।
गीत मेरे प्राण गाओ।

...

प्रेम मधुर स्पर्श प्रिय का है,
गहन उल्लास निज अन्तर का
अधमुंदे नयनों में स्वप्निल
मुदित हास प्रस्तुत जीवन का

प्रिय होठों से उत्सृत शब्दों
में, खोजता सत्त्व जीवन का
शब्दों के बिना अधरों में
परम सुख पाता जीवन का

नयनों की चितवन में पाता
आनंद धरा पर अम्बर का
अनदेखे, अनकहे शब्दों में,
चिर गान मृण्मय जीवन का

सर्वस्व समर्पण की इच्छा
है ध्येय यह निज अन्तस् का
शब्द कम हैं मेरी झोली में,
सार गहो सकल भावों का

कुछ बातें कहनीं बाकी हैं,
है इंतजार उन प्रहरों का
पाता संबल तन्हाई में मैं
मुस्कान मदिर उन अधरों का

Sunday, August 10, 2008

छूटता जीवन

कभी-कभी अपने बड़े होते जाने पर अफ़सोस होता है, और अपनी बेबसी पे रोना भी आता है याद आते हैं पुराने स्कूल के दिन, जब हम छोटे होते हुए भी ख़ुद को बड़ा महसूस किया करते थे , और अभी का वक्त है कि जब हम बड़े हो गए हैं, किशोरावस्था अब हमें छोड़ने वाली है, तब उस मोड़ पे भी ख़ुद को काफ़ी छोटा (क्षुद्र) पाते हैं अब समझ आता है कि कोई बचपन को इतना क्यों याद करता है, 'वो कागज की कश्ती...वो बचपन की यादें...' का तराना क्यों छेड़ता है...यह अनायास ही निकल पड़ता है सब कुछ स्वतःस्फूर्त होता है, भावनाओं का आवेग... स्कूल के उन प्यारे दिनों में कुछ भी करने में यह अनुभव होता था कि हम यह सब कर रहे हैं... हम 'कर्त्ता' हैं, लेकिन अब वह भावना नहीं पाती है पहले हम ख़ुद ही सिस्टम थे, अब सिस्टम का एक 'औजार' (टूल) भर रह जाने का कटु अहसास होता है मस्ती में भी वह बेतकल्लुफी नहीं रह गई है सब कुछ सोच-समझ कर करना पड़ता है अब अपना संसार नहीं बना पाते हैं, बल्कि दूसरों के बनाये संसार में ख़ुद को खोजना पड़ता है समझ बद्गने के साथ-साथ आदमी का दायरा भी सिकुड़ता चला जाता है बचपन में हम सजीव-निर्जीव का भी अन्तर नहीं करते थे, बच्चों को अपने खिलौनों -गुडियों की भी चिंता रहती थी अब...अब शायद वो बात नहीं रहती है बचपन में जिम्मेदारी उठाने में एक मज़ा-सा आता था, वहीँ अब दायित्व-बोध सर पे बल डाल जाता है उन दिनों की याद ही अब पास रह गयी है......
अभी चार-पाँच दिन पहले मेरे पुराने स्कूल का मेरा एक मित्र यहाँ कोचीन आया हुआ था उससे बातचीत होने के क्रम में पुरानी बातें फिर से निकल पड़ीं उस समय मुझे यह अनुभूति फिर से हो आई वहाँ फैसले हमारे होते थे, मर्जी अपनी होती थी मनोरंजन के लिए बस एक-दूसरे का साथ भर था, लेकिन हम उसी में संतृप्त थे, किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं होती थी अब ढेर सारे साधन हैं, पर उनमें वो भावनाओं की ऊष्मा नहीं है, बस मशीनी पुट है उसी समय मैंने धर्मवीर भारती की 'गुनाहों का देवता' पढ़ी थी, जिसमे लिखा हुआ एक शेर मुझे अभी याद रहा है,
बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों में कहाँ
वह मज़ा ,जो भींगी-भींगी घास पर सोने में है।
मुतमईन बेफिक्र लोगों की हँसी में कहाँ
लुफ़्त, जो एक-दूसरे को देखकर रोने में है।
यह शायद यहाँ के सन्दर्भ में शत-प्रतिशत उपयुक्त भले ही ना बैठ रही हो, लेकिन फिर भी यह बहुत कुछ कह जातीहै...

उन प्यारी यादों में डूबा हुआ...
राघवेन्द्र

Saturday, August 9, 2008

मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ ।

मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ
इस जीवन के प्रेमिल छन्दों को
तुम्हें सुनाता चलता हूँ

नदी को सबने देखा है,
उसकी मस्ती भी देखी है,
उसकी मस्ती का अंश लिए
मैं जमीं नापता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

फूलों में मुस्कान भरी है,
गन्ध, रस, माधुर्य भरा,
उस चितवन का सत्त्व लिए
मैं हँसी बाँटता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

हवा यह ख़ुद में जीवन का
संगीत समाए चलती है,
उस सरगम को साथ लिए
मैं तुम्हें सुनाता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

लयबद्ध गति ही जीवन है,
रुक जाने में वह आन कहाँ,
प्रकृति की अस्फुट लय-लहरी
मैं तुम्हें बताता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

मैं थोड़ा हूँ, मुझे ज्ञात है,
जीवन का यह लघु साथ है,
काम सकूँ औरों के, सो
मैं हाथ बढाता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

जीवन के रंग बहुत देखे हैं,
खुशी और गम भी देखे हैं,
दुःख सहेजकर निज अन्तर में
मैं हर्ष बाँटता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

पीछे कितने दुःख-दर्द भरे,
कितने कंटक हैं आन पड़े,
उनको पीछे छोड़ सरल पथ
मैं तुम्हें दिखाता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

विरह-मिलन आते-जाते है,
मधुर स्मृतियाँ ही साथी हैं,
उन पल को जी लेने को मैं
संग तुम्हारे हो चलता हूँ

मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ
इस जीवन के प्रेमिल छन्दों को
तुम्हें सुनाता चलता हूँ



Friday, August 8, 2008

कौन तुम?

कौन तुम मेरे स्वप्नों में आयी
तड़ित् दामिनी-सी क्षण भर में,
चिर संचित प्रणय रस बहाकर
इस विकल जीवन निर्झर में।

व्याकुल मैं तव सहज रूप से
हूँ खोजता उत्तर स्वयं का,
क्या संज्ञा दूँ उस स्वरूप को,
किस भाँति मैं निरखूँ तुझको।

अन्तस् गहन में उद्भावित
भावों की सृष्टि हो तुम,
मंजुल मधुर स्वप्नों की
प्रणय पगी रागिनी हो तुम।

स्निग्ध भावों की बाँहों में
स्मित उर की कल्पना हो तुम,
प्रणय काल में विरही की
नित सामीप्य की ऐषणा हो तुम।

सौंदर्य सुलभ मुस्कान खोजते
चातक की स्वाति हो तुम,
स्पर्शहीन कल्पना सुसज्जित
वरेण्य भावमूर्त्ति हो तुम।

वरण की वह मौन स्वीकृति
सौम्य सुखद प्रेरणा हो तुम,
सहज सुकोमल भाव मोहिनी
उर अंकित कामना हो तुम।

यथार्थ या मरीचिका क्या, तुम
क्या बस एक छलावा हो,
मीठे स्वप्नों में उलझा रहूँ
क्या तुम वही भुलावा हो।

पर नहीं , तुम मेरी कृति हो,
तुम मेरी उर-निवासिनी,
तुम वरेण्य मेरी बाँहों में,
तुम मेरी चिर मनःसंगिनी।






Friday, August 1, 2008

क्या बात कहूं मैं


प्रस्तुत पल, बीते लम्हों में,
रीते-रीते से प्रहरों में,
जीवन की सर्पिल लहरों में।
फिर क्या अपनी बात कहूँ मैं।

छलते स्वप्नों की दुनिया में,
उभरे शब्दों की छलना में,
छलते जीवन की तृष्णा में,
किस यथार्थ की बात करूँ मैं।
फिर क्या अपनी बात कहूँ मैं।

वन की मादक हरियाली में,
ज्वलित तारक की थाली में,
सूने कोरों की बेहाली में,
किन लम्हों की बात करूँ मैं।
फिर क्या अपनी बात कहूँ मैं।

क्षण-क्षण घिर आते पतझड़ में,
अन्तर्वेधी पीड़ा गह्वर में,
दर-दर पर खाते ठोकर में,
किन कष्टों की बात करूँ मैं।
फिर क्या अपनी बात कहूँ मैं।

उर से उपजी आकुलता में,
रात्रि की स्याह विगलता में,
जीवन की क्रूर कुटिलता में,
किस संबल की बात करूँ मैं।
फिर क्या अपनी बात कहूँ मैं।