Thursday, October 15, 2015

चाहत होती है
इक बूँद की,
होठों से होकर 
हलक को जो छू ले
और जलती-सी प्यास,
वह शांत हो ले.

और
बूँद मिलती भी है
हलक को
शांत होने को,
प्यास बुझाने को,
पर बुझती नहीं है,
और भी धधक जाती है,
बूँद की नहीं अब,
स्रोत की चाह होती है,
उसके अनवरत बहते 
शीतल मधु धार में
होठों को सतत 
भिंगोये रखने की चाह होती है,
उस धार में 
डूबे रहने की  चाह होती है.

Friday, August 28, 2015

तुम

दूर कहीं आते प्रकाश की
बनती, तुम परछाई हो,
नहीं छुऊँगा तुम्हें,
नहीं तो तुम्हारा अस्तित्व बदल जायेगा,
तुम बदल जाओगी।

विस्तृत नीलगगन की छवि लिए
झील की तुम शांत सतह हो,
स्पर्श नही करूँगा मैं,
नहीं तो लहर बनकर तुम
मुझसे दूर चली जाओगी,
तुम्हारा वह शांत पटल
फिर निर्द्वंद्व नहीं रह जायेगा।

तुम वंदना हो, कल्पना हो,
ऊँचे तल पर ही रहो,
पास नहीं आऊँगा मैं,
तुम्हें अपने लोक में नहीं खींचूँगा,
नहीं तो इस धरा पर आकर
मेरी तरह ही बन जाओगी तुम,
और यह भी बता दूँ कि
अपनी कल्पना को खुद की तरह
धूसर होते नहीं देख पाउँगा मैं,
जीवन का एक आधार
नहीं खोना चाहूँगा मैं।

Friday, May 29, 2015

चलो मैं लिखता हूँ...

तुम कहते हो - कुछ तुम लिखो,
क्यों कहते हो कि तुम लिखो

क्या लिखूँ इन पन्नों पर ,
जीवन का क्या गीत लिखूं,
इन कोरे-काले शब्दों में
मैं कैसा संगीत रचूँ ?

सोचा था आनंद हृदय का
तुममें सारा भर डालूँ ,
श्वेत- श्याम-से जीवन के
बचे रंग तुम्हें दे डालूँ

पर क्या करुँ- हृदय का विषाद
शब्दों में स्वतः उभर आता है
लिखने को बैठा श्वेत पक्ष मैं
स्याह स्वयं छलक जाता है

यही सोच चुप बैठा था कि
कब तक तुम्हें रुलाऊंगा,
अपने हृदय का बोझ भला
कब तक तुम्हें सहाऊंगा

फिर आज तुमने ही कहा-
कुछ तो लिखो, कुछ तो कहो,
दिनों तक मौन रहे तुम,
उन पलों की तुम आज कहो

जब तुम कहते हो- लिखो,
तो चलो, आज मैं लिखता हूँ,
मौन पड़े जो छंद हृदय में
आज उन्हें मैं कहता हूँ