Friday, October 1, 2010

मुझे छोड़ क्यों जाते हो ?

साथ दिया इतने तक तुमने,
अब दूर क्यों जाते हो,
सफ़र कट चुका लगभग अब तो,
मुझे छोड़ क्यों जाते हो ?

हाथ पकड़ा था मेरा जब
मैं अनजान अकेला था,
सब कुछ अब जब जान गया मैं,
मुझे छोड़ क्यों जाते हो ?

हँसता मैं, संग हँसते थे,
रोते पल में तुम थमते थे,
अब तुम यूँ चुप-चुप से रहकर
मुझे छोड़ क्यों जाते हो ?

कितनी ही भटकी राहों में
साथ तुम चले मेरे थे,
सीधी-सीधी राहों में अब
मुझे छोड़ क्यों जाते हो ?

तुम मुझसे कुछ दूर-दूर हो,
कमी तुम्हारी खलती है,
साथ तुम्हारा जब मैं चाहूँ,
मुझे छोड़ क्यों जाते हो ?


कोई भूल हुई हो मुझसे ,
तो उसको तुम माफ़ करो,
कुछ कहने को दिए बिना यूँ,
मुझे छोड़ क्यों जाते हो ?

तुम्हें अपनों में देखा है,
वह छवि मिटा क्यों जाते हो ?
तुम मेरे इतने प्यारे हो,
मुझे छोड़ क्यों जाते हो ?

Tuesday, September 21, 2010

तुम न आना

रजनी के नीरव पल में तुम
मेरे सपनों में आना,
यह मन विकल हो जाता है

प्रातः की किरणों के संग तुम
उनकी लाली बन आना,
यह मन उनसे रंग जाता है

रंग-बिरंगे फूलों की हँसती
चितवन में तुम उतर आना,
यह मन उनमें खिंच जाता है

मद्धिम पवन के झोकों संग
मुझको छू तुम बह जाना,
मन संग-संग बह जाता है

प्यारी बदली की बूंदों का
कोमल वेश तुम धर आना,
यह मन विकल तड़प जाता है

ढलती सांझ के गहन पलों में
धुंध बन तुम उतर आना,
यह मन उसमें खो जाता है

मेरे एकांत पलों में तुम
मेरी यादों में आना,
यह मन उनमें गुम जाता है

मेरी पड़ती परछाई में तुम
अपना अक्स दिखलाना,
यह मन उसमें खो जाता है

चाँद की उजली किरणों में
शीतलता बन तुम आना,
यह मन उसमें रम जाता है

दूर कहीं उठती सरगम में
लय बनकर तुम चली आना,
यह मन उसमें बंध जाता है

Friday, September 17, 2010

बेबस

जब कहीं भी आग लगती,
जब कहीं धुआँ निकलता,
उजड़ी छतों, गिरी दीवारों,
घर के
बिखरे सामानों से
तब यही आवाज आती-
यह किसी
गरीब का था।

खाली फैले काले हाथों में,
सामने ताकती सूनी आंखों में,
उजड़ने की इक कसक-सी,
मांगने की इक झिझक-सी,
' मुरझे चेहरों से झलकता-
यह बेबस, लाचार ही था।

Sunday, August 15, 2010

मुस्कान

साँसों में गहरी, घुलती-सी,
होंठों पर प्यारी फैली-सी,
चंचल नैनों में लास लिए

हँसी बहुत वह खिलती थी.
गालों में लाली भरती-सी,
कुछ-कुछ पगली-सी लगती-सी,
खुद में थोड़ी चुहल लिए वह

हँसी बहुत इतराती थी.


लुकती-छिपती, पास बुलाती,
यह बतलाती, वह बतलाती,
चुपके-चुपके मुझपर हँसती
हँसी बहुत वह खिलती थी.
कभी हल्की-हल्की-सी खिलती,
कभी पूरे सुर में थी सजती,
पल में अपने रंग बदलती
वह हँसी बहुत भरमाती थी.

वह खुद में शरमाई थी,
या मुझको भरमाई थी,
हौले-से बनती बांकी-सी
वह हँसी बहुत अलबेली थी.

चलते-चलते कुछ बल खाती,
नयनों को खुद पर थिरकाती,
रस में डूबी अनगढ़-सी
वह हँसी बहुत मतवाली थी.
मुड़-मुड़कर आगे बढती थी,
तिरछे नयनों से तकती थी,
मन में हल्की चुभन जगती
वह हँसी बहुत तरसाती थी.

अपने
में कुछ बात छुपाती,
पूछूँ मैं, वह ना बतलाती,
खिलते-खिलते-से चेहरे पर
वह हँसी बहुत इठलाती थी.

कुछ कहकर वह चुप हो जाती,
आँखों को तब गोल बनाती,
जैसे कुछ ना समझी हो वह
हँसी बहुत भोली बनती थी.
प्रातः की ताज़ी-खिली कली-सी,
मौन अधरों पर उमड़ी-सी,
मंद-मंद-सी मदिर तुम्हारी
हँसी बहुत कुछ कहती थी.
मैंने जो देखी तुम पर थी,
छल-छल बहने को आतुर थी,
यूँ ही हर पल हंसा करो, वह
मुस्कान बहुत ही प्यारी थी।

Saturday, August 14, 2010

बरस अम्बर

गरज अम्बर,
बरस मन भर,
मुक्त कर स्वर,
राग झर-झर.

बहा अविरल,
स्नेहमय जल ,
हृदय चंचल,
सिक्त कर चल.

ताप यह हर,
प्राण नव भर,
जलद मनहर
बरस सत्वर.

गहन श्यामल,
नील घन दल,
बरस शीतल,
मेघ के जल.

धरा विहसित,
लता हर्षित,
वात सुरभित,
गात विगलित.

मृदुल जलकण,
मगन कण-कण,
छटा नूतन,
पुलक तन-मन


Monday, March 1, 2010

ढलती-सी शाम कहीं...

ढलती-सी शाम कहीं,
छलका है जाम कहीं,
अब के सफ़र में अपना
भूला हूँ नाम कहीं.
ढलती-सी शाम कहीं...

मंजिल का नाम नहीं,
रस्ते को थाम कहीं,
आँखें उनींदी लिए
निकला हूँ आज कहीं.
ढलती-सी शाम कहीं...

अब तुम हो साथ नहीं,
प्यारी वो बात नहीं,
सपनों के टूटे पल में
बिखरे ज़ज्बात कहीं.
ढलती-सी शाम कहीं...

अपनी तो शाम यहीं,
बैठे - बेकाम सही,
दो लफ़्ज आ ही गए,
गाता हूँ आज यहीं.
ढलती-सी शाम कहीं...


Sunday, February 7, 2010

रेलगाड़ी का आखिरी डिब्बा और क्षेत्रवाद

रेलगाड़ी के आखिरी डिब्बे और समस्याओं में बड़ा ही रोचक सम्बन्ध है. और इस सम्बन्ध को हमारे प्रधानाचार्य काफी रोचक ढंग से समझाया करते थे. उनका वर्णन कुछ इस तरह से हुआ करता था - "रेलगाड़ी अक्सर दुर्घटनाओं का शिकार हो जाया करती थीं. उसमें भी अधिकांशतः पिछले डिब्बे में ही इंजन की ठोकर लगा करती थी और वो बुरी तरह से बर्बाद हो जाता था. जान-माल की काफी हानि पहुँचती थी. समस्या गंभीर थी. तब इस समस्या के निदान के लिए सरकार ने इक समिति का गठन किया. काफी छानबीन के बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट दी - "रेलगाड़ी के आखिरी डिब्बे को ही हटा दिया जाए. 'ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बांसुरी'. दुर्घटना ही नहीं होगी." समिति के सुझावों पर तत्काल प्रभाव से अमल किया गया. फिर भी दुर्घटना-पर-दुर्घटना होती रही. सरकार फिर परेशान..........नयी समिति बनायी गयी. इस बार संयोग से कुछ ज्यादा बुद्धिमान लोग मौजूद थे. फिर से दुर्घटनाओं पर नजर रखी गयी. तब जाकर यह मालूम हुआ कि आखिरी डिब्बे को हटाने के बाद जो डिब्बे बचते थे, उनमें भी इक डिब्बा आखिरी डिब्बा हो जाता था. अब अगर आखिरी डिब्बा रहेगा, तो दुर्घटनाएं तो होंगी हीं. अंत में समिति की ओर से सिफारिश आयी - " रेलगाड़ी के सारे डिब्बे हटा दिए जाएँ." परिणाम यह हुआ की रेलगाड़ी का चलना ही बंद हो गया, क्योंकि आगे चलकर इंजन भी आपस में टकराने लगे थे." यह दृष्टान्त काफी रोचक भी था और शिक्षाप्रद भी.
तो यह थी हमारे श्रद्धेय प्रधानाचार्य महोदय की बात. और आज यह महसूस होता है कि यह बात सिर्फ रेलगाड़ी के चलने भर से सम्बंधित नहीं थी, बल्कि यह हमारे समाज की, हमारे जीवन की गाडी पर भी उतनी ही लागू होती है. आज हमारे राष्ट्र की कई समस्याएं इससे सम्बद्ध नजर आ रही हैं, जैसे- क्षेत्रवाद, भाषावाद, कट्टरवाद, साम्प्रदायिकता, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, और ना जाने कितना कुछ...
आज की तारीख की एक बहुत बड़ी समस्या, जो हमारे प्यारे भारतवर्ष को घुन की तरह खाए जा रही है, वह है- क्षेत्रवाद की समस्या. इसका निदान अगर उस रेलगाड़ी वाली समिति के तरीके की तरह से किया जाये तो यह कुछ इस तरह से होगी...."क्षेत्रवाद की समस्या से निपटने के लिए देश में इसके कारणों पे जाना होगा. चूँकि हरेक व्यक्ति को उसके विकास का इतना मौका नहीं मिल पाता है, कि वो अपना समुचित विकास कर सके, तो इसके लिए भारत को इतने टुकड़ो में बाँट दिया जाए ताकि हरेक व्यक्ति को पूरे-पूरे अवसर मिल सकें. हर मोहल्ले का, हो सके तो हर घर, हर व्यक्ति की अपनी कुछ थोड़ी-सी जमीन होगी, अपना झंडा होगा, अपना-अपना संविधान होगा. विकास की तब पूरी सम्भावना होगी. इस मोहल्ले का आदमी पड़ोस के मोहल्ले में व्यापार-रोजगार करने नहीं जा सकता है. इस मोहल्ले का ग्वाला अगर बगल के मोहल्ले में दूध देता है, तो इससे एक तो अपने मोहल्ले के स्त्रोत पर दूसरे मोहल्ले की नजर लग रही है, और दूसरे मोहल्ले वाले की नजर में यह उनके क्षत्र के ग्वाले की रोजी-रोटी पे लात मारने की पहले मोहल्ले की साजिश होगी. क्षेत्र की अक्षुण्णता का पूरा-पूरा सम्मान होगा." इससे तो यही सीख मिलती है कि अंग्रेजों की 'फूट डालो, और शासन करो' कि नीति ही आज देश में क्षेत्रवाद की बढती समस्या से निजात दिला सकती है. और देश में नेताओं की मांग बढ़ जायेगी, देश में बढती बेरोजगारी की समस्या से निपटने का यह काफी सरल और रामबाण उपाय है.
यह सब देखने पर एक आम आदमी शायद यह सोचने को जरुर मजबूर हो जाता होगा कि पता नहीं, लोगों ने एक साथ मिलकर आजादी की लड़ाई कैसे लड़ी होगी. कैसे पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्कल, बंग,विन्ध्य, हिमाचल आदि कैसे साथ में आये होंगे. गंगा-जमुना की गोद में बसे बिहार, उत्तरप्रदेश के लोगों ने कैसे गोदावरी नदी की गोद में बसे आन्ध्र के साथ मिलकर आजादी के लिए अपने खून की होली खेली होगी. कन्याकुमारी और कश्मीर कैसे साथ आये होंगे. सौराष्ट्र से अरुणाचल तक लोगों का आपसी सद्भाव का सेतु कैसे विकसित हुआ होगा. बचपन में हमें स्कूलों में पढाया जाता था- " भारत विविधताओं में एकता का देश है". आज बड़ा होकर देखता हूँ, तो पाता हूँ, कि विविधताएं तो निस्संदेह हैं, पर एकता न जाने कहाँ खो-सी गयी है. क्षेत्रवाद का घुन देश को, लोगों के दिलों-दिमाग को खाए जा रहा है.
'क्षेत्रीयता / क्षेत्रवाद' से तात्पर्य है- 'देश के विभिन्न भागों का 'राजनीतिक राष्ट्रीयकरण'. भारत 'राज्यों का इक संघ' है, जिसमें सांस्कृतिक रूप से कई राष्ट्र सम्मिलित हैं, भारत की आत्मा को प्रिय 'संगच्छद्वम, सम्वद्ध्वम् ' और 'संघे शक्ति कलियुगे' की भावना ना जाने कहाँ चली गयी है. यहाँ की सामासिक संस्कृति हमारी विशेषता है. लेकिन जब इसी सामासिक संस्कृति में व्यक्तियों के कुछ समूह जब अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए राष्ट्र की संस्कृति में जब राजनीतिक जहर घोलने लगते हैं, तो वही बहुत खतरनाक हो जाता है. भारत की परिकल्पना इक परिवार के स्वरुप में ही सदा से की जाती रही है, पर आज इस परिवार में जो कुछ आज आगे पहुँच गए हैं, उन्हें अपने से पीछे छूटे स्वजनों का कोई ख्याल नहीं है. और जो पीछे छूते रहते हैं, उनमें सुलगती असंतोष की भावना भी पारिवारिक ताने-बाने को क्षति पहुँचा रही है. आज के युग में हममें से कई शिक्षा-रोजगार के सिलसिले में देश में ही इधर-उधर आते-जाते रहते हैं. आज जब भारत की विविध संस्कृतियों को आपस में घुल-मिलकर इक सामासिक संस्कृति बनानी चाहिए थी, तो कुछ लोग अपनी राजनीति की दूकान चलने के लिए देश की आत्मा को ही बंधक बनाये हुए हैं. आज हमारे देश में क्षेत्रवाद के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, वह होना नहीं चाहिए. हमारे देश को आगे की ओर बढ़ना है. और राष्ट्रनिर्माण के यज्ञ में देश के सभी हिस्सों के लोगों ने खुद की आहुति दी है. जब घर में ही एकता नहीं होगी, तो हम बाहर का मुकाबला कैसे कर सकते हैं. भारत एक चेतना है, एक जीवनशैली है, एक गीत है, जिसमें हम सभी भारतीय सम्मिलित हैं. अगर एक संगीत समारोह में अनेक वाद्ययंत्रों में अगर कोई एक वाद्ययंत्र ख़राब हो जाये या खुद को श्रेष्ठ समझते हुए बाकी का साथ देने से इनकार कर दे, तो सुर कहाँ-के-कहाँ चले जायेंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. हमसबों को अपने एस प्यारे भारतवर्ष को बचाना है, जो ना जाने कितनी समस्याओं से यूं ही घिरा हुआ है. बगल के पड़ोसी हमारे देश पे गिद्ध-दृष्टि लगाये बैठे हैं. ना जाने कितने भूखे,लाचार, बेरोजगार हैं, उनके लिए कुछ रचनात्मक, सकारात्मक कार्य किया जाये, तो यह सबों के लिए अच्छा होगा. अन्यथा भारत उसी ब्रिटिश गुलामी के दिनों में लौट जाएगा, जब भारत में राष्ट्रवाद नाम की कोई चीज नहीं थी, रियासत-रजवाड़े आपस में ही लड़ा करते थे. आपस में ही कटकर मरना कोई बहादुरी की निशानी नहीं है.
सो हम सब साथ मिलकर बढें, साथ-साथ शक्तियों का संवर्धन करें. भारत को फिर से जगदगुरु बनायें. एक अकेली अंगुली में नहीं, बल्कि शक्ति मुट्ठी में होती है. -
ॐ सहनाववतु, सहनौभुनक्तु,सहवीर्यं करवावहे.
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावाहे.