जब कहीं भी आग लगती,
जब कहीं धुआँ निकलता,
उजड़ी छतों, गिरी दीवारों,
घर के बिखरे सामानों से
तब यही आवाज आती-
यह किसी गरीब का था।
खाली फैले काले हाथों में,
सामने ताकती सूनी आंखों में,
उजड़ने की इक कसक-सी,
मांगने की इक झिझक-सी,
औ' मुरझे चेहरों से झलकता-
यह बेबस, लाचार ही था।
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