Friday, September 17, 2010

बेबस

जब कहीं भी आग लगती,
जब कहीं धुआँ निकलता,
उजड़ी छतों, गिरी दीवारों,
घर के
बिखरे सामानों से
तब यही आवाज आती-
यह किसी
गरीब का था।

खाली फैले काले हाथों में,
सामने ताकती सूनी आंखों में,
उजड़ने की इक कसक-सी,
मांगने की इक झिझक-सी,
' मुरझे चेहरों से झलकता-
यह बेबस, लाचार ही था।

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