Tuesday, September 21, 2010

तुम न आना

रजनी के नीरव पल में तुम
मेरे सपनों में आना,
यह मन विकल हो जाता है

प्रातः की किरणों के संग तुम
उनकी लाली बन आना,
यह मन उनसे रंग जाता है

रंग-बिरंगे फूलों की हँसती
चितवन में तुम उतर आना,
यह मन उनमें खिंच जाता है

मद्धिम पवन के झोकों संग
मुझको छू तुम बह जाना,
मन संग-संग बह जाता है

प्यारी बदली की बूंदों का
कोमल वेश तुम धर आना,
यह मन विकल तड़प जाता है

ढलती सांझ के गहन पलों में
धुंध बन तुम उतर आना,
यह मन उसमें खो जाता है

मेरे एकांत पलों में तुम
मेरी यादों में आना,
यह मन उनमें गुम जाता है

मेरी पड़ती परछाई में तुम
अपना अक्स दिखलाना,
यह मन उसमें खो जाता है

चाँद की उजली किरणों में
शीतलता बन तुम आना,
यह मन उसमें रम जाता है

दूर कहीं उठती सरगम में
लय बनकर तुम चली आना,
यह मन उसमें बंध जाता है

1 comment:

Unknown said...

bahut gaharayi hai is kavita me...thodi language ki dikkat hoti hai mujhe kyuki meri hindi itni pavitra nahi hai...but feeling pure ubhar k aa rhe aur jiske liye bhi likhe hai, bahut khushnaseeb hai wo :)