Sunday, March 23, 2008

नव प्रवाह

यह द्वेष क्यों
नव प्रेम है।
यह तिमिर क्यों
नव हेम है।

यह व्यथा क्यों
नव राह है।
यह क्लेश क्यों
नव चाह है।

यह दाह क्यों
नव सोम है।
यह क्षीण क्यों
नव व्योम है।

मृगतृष्णा

शून्य-सा अनुभव कर रहा
यह रिक्ति मुझे घेरे खड़ी
प्राण की खोज मे विकल
बेसुध है यह भाव-लड़ी।


मैं एकाकी सोच रहा,हूँ,
स्वयं में मैं पूर्ण नहीं
भाव ललकते हैं मेरे,पर
मिलती उनको राह नहीं।

अन्तःसागर उद्विग्न-विकल
लहरें भी वैसी हैं उठती
शान्ति की अस्ति कहाँ
रातें भी सोती-जगती-सी।

आँखें भी सूनी-सूनी हैं
शब्द कहीं खुद में खोए-से
भावों को मिलती ठौर नहीं
जगते में हैं सोये-से।

वह दर्द कहीं-से उठा हुआ
क्यों मुझे भेद-सा जाता है
क्या रिश्ता उस दर्द से,जो
मुझे झकझोर जाता है।

तुम छाया हो,यह क्यों,
अब तक मैं समझ पाया
छाया तो बस छलना है
यह सरल भेद जान पाया।

जीवन का वह द्वन्द्व कठिन
मुझे झिंझोड़े जाता है
क्या खोना,क्या पाना, अब
मुझे समझ आता है।

स्तब्ध पलों का अहसास क्रूर
वह मुझे चीर-सा जाता है
नीरवता से भाग रहा,जो
नयनों मे जल भर जाता है।

यादें संजोना तो सरल है
भूलना उन्हें सच दुष्कर है
उन चुभती यादों में गलना
सचमुच ही शायद प्रियतर है।

वे यादें बस मृगतृष्णा हैं
कहीं छुपा यह अहसास है
फिर भी हृदय उन्हीं मे डूबा
जब तक चलती यह साँस है।

अभ्यस्त नयन ये अनायास
राह तकने लग जाते हैं
भूली-बिसरी यादों के फिर
मेले खुद सज जाते हैं।

कहीं आनन्द प्रतीक्षित है
पर मैं खुद निर्द्वन्द्व नहीं
तृषित हृदय की तृष्णा को
यह सन्नाटे का छन्द सही।

रोना अब सम्भव नहीं, सच
अश्रु ये जमते जाते हैं
अभीष्ट अब है दृश्य नहीं
कदम ये थमते जाते हैं।

अब तक मैं एकाकी था
साथ के सपने थे देखे
अब-भी मैं एकाकी हूँ
सपने अब हैं बिखरे-से

विकल तो हृदय होता है
मस्तिष्क, तुम क्यों शून्य पड़े
जीवन यह चल तो रहा है
हे हृदय, तुम क्यों वहीं अड़े

जगती रातों की कौन कहे
निद्रित पल भी व्याकुल हैं
कसक बनकर चुभ रहे अब
यादों के कसते संकुल हैं

सच ही मनुज मूढ़ होतें हैं
सबक कभी ले पाते हैं
औरों की गलती से सीखो-
कहते यह,खुद कर जाते हैं

हृदय पे जोर किसका चला है
कब कौन बांध इसको सका है
भाव-श्रृंखल से दूर रहो,यह
समझाना इसको वृथा है

सौन्दर्य-शक्ति में द्वन्द्व सदा
युगों से चलता आया है
हाय रे हृदय,मस्तिष्कजयी
सदा अन्धा होता आया है।

क्या पन्थ यही मुझको श्रेयस्कर
यह विचार वह पाता है
भावों मे बहकर जाने
पल कितने खुद गढ़ जाता है।

समय तो सब कुछ भूल मुदित ,हो
आगे बढ़ता जाता है
भावों का चिर भिक्षुक मानव
वहीं खड़ा रह जाता है।

भले कहीं निर्जीव सकल हैं
जो इनमे बन्धा करते हैं
हम चैतन्य कहलाते हैं
यादों में उलझा करते हैं।

आखिर दोष किन्हे मैं दूँ
हृदय अथवा इन नयनों को
या उलझा मैं खुद कह दूँ
प्रथम परिचय की वेला को।

यह अंकुर कब पनप उठा
मेरे उर की गहराई में?
यह भी एक रोग दुःसह है
लगता जो तरूणाई में।

उन प्यारे पलों में मैंने
कल्पित संसार पिरोया था
बेसुध क्षणों में मेरा 'मैं'
कल्पित 'हम' में खोया था।

भूल ना पाऊं मैं वह अस्ति
यह जीवन जिससे हुआ प्राण
गीत बन कर गूँजी थी मन में
प्रेमिल भावों की मधुर तान।

सागर अंतहीन होतें हैं
ज्वार बहुत सह लेते हैं
पर उर में उठते भाव-ज्वार
कसक चुभी छोड़ जाते हैं।


माया,तृष्णा,जो भी कह लें
पर यह अंतस् को भाती है
कितना भी हम इनसे भागें
हर मोड़ हमें टकराती है।

नियती का यह हास्य कटु है
सुध आप ही बिसराती है
कल्पित क्षितिज का दृश्य विरल
आँखों पर लहराती है।

भावों का गह्वर दुष्कर है
भेद इसे नहीं पाता हूँ
फूलों को पाने को इप्सित
काँटों में उलझा जाता हूँ।

ईश्वर की सृष्टि अद्भुत है
कहीं धूप कहीँ छाँह है
कहीं प्रेम की प्यास करुण है
कहीं सरित प्रवाह है।

गीले कोरों से झिलमिल
सौन्दर्य निहारा करता हूँ
ज्ञात है,वह प्राप्य नहीं
इक श्वास गहन ले लेता हूँ।

यह पवन भी तुझसे स्पर्शित
सोच अंक भर लेता हूँ
स्यात् यक्ष का मेघदूत यह
इसको मैं गह लेता हूँ।

स्वप्नों को जीना मुश्किल है
अहसासों में जी लेता हूँ
है कहीं इक आस पड़ी-सी
मन को यह समझा देता हूँ।

क्यों मैंने वह चित्र मृदुल तव
निज हृदय में था उकेरा
पर कभी मैं भर पाया
उस छवि में उच्छ्वास तेरा।

मैं एकान्त का प्रेमी था
वह भी तुझ पर वार दिया
निज नीरव क्षणों में मैंने
उर में मृदुल आकार दिया।

मेरा वह एकान्त निज प्रिय
मुझे निभाया करता था
मैं गीत प्रेम के गढ़ता था
' उसे सुनाया करता था।

भूख-प्यास सब होम हुए
वह गीत कहाँ,एकान्त कहाँ
मृगतृष्णा की चाह चिरन्तन
इस भटकन का अंत कहाँ।

अंत कहीं भी हो प्रतीक्षित
किन्तु मुझे यह ज्ञात है
स्मृति विगत प्रहरों की अब
मंजुल मेरे साथ है।

मधुर स्मृतियाँ कष्टसाध्य हैं
जो मिलीं,सहेज लेता हूँ
जीवन की खुशियाँ थोड़ी हैं
उनको खोने से डरता हूँ।

हृदय में जो हूक उठी है
यह पीड़ा भी प्रिय मुझको
यह अनमोल धरोहर मेरी
सो,सर्वस्व समर्पण तुझको।

तुम यथार्थ हो,तुम कल्पना,
तुम गीत की मम भावना
मैं प्रेम भावों का अकवि
तुम प्रेम की मम वन्दना।

तुम मेरी सौम्य कल्पना,
मृदुल भावों की कृति तुम
रिक्त हृदय की सिक्ता,
छन्द की मम प्रेरणा तुम।

कोमल भावों से गढ़ी हुई
शुभ, सौम्य,सहज,सौन्दर्य छवि
तुम सुरभि,तुम गन्ध-स्पर्श प्रिय,
तुम अन्तस् की सुखद स्मृति।

Thursday, March 6, 2008

गीत नया फिर गाएँगे

(यह कविता या गीत जो भी कहा जाये, फ़रवरी,2008 में निर्माण( fest of civil engineering division,CUSAT) के लिये लिखी गयी थी.)


हम गीत नया गाएँगे.
हम सब मिले हैं आज यहाँ,
ये दिल खिले हैं आज यहाँ,
हृदय में खिलते भावों से
ये पल हर पल हो जवाँ.
इस निर्माण की महफ़िल का कुछ
समाँ छोड़ हम जाएँगे.
हम गीत नया फिर गाएँगे.



उमंग का प्रिय उत्सव यह
रंग विविध दिलों पर छाए,
मिलन के इन प्यारे पलों ने
यादों के अब फूल खिलाये.
पल कितने किसने देखे हैं
हम आज उन्हें जी जाएँगे.
हम गीत नया फिर गाएँगे.



सपनों की कुछ बातें हैं,
नगमों की कुछ बातें हैं,
ये शाम भी ढ़ल जाएगी
रहने वाली बस यादें हैं.
यादों की दुनिया को हम
कुछ आज नया दे जाएँगे.
हम गीत नया फिर गाएँगे.



यह संध्या संग झूम रही,
देखो, सब संग झूम रहे,
सबकी धड़कन की मस्ती ने
इस महफ़िल में रंग भरे.
यह निर्माण की शाम है
इसको याद बना जाएँगे.
हम गीत नया फिर गाएँगे.



प्यार हमारा है सबों को,
दुआ हमारी है सबों को,
सदा रहे यह याराना
यही कहना है सबों को.
हमारी इस मिलनवेला में
हम गीत खुशी के गाएँगे.
हम गीत नया फिर गाएँगे.







Monday, March 3, 2008

कवि का अर्थ

यदि सब साफ़-साफ़ कह दूँ तो
कवि होने का अर्थ क्या है?

कुछ दहक अन्दर भी रहने दो,
उर में जो ज्वाला जल रही
उसमें तुम मुझको जलने दो.
उस तपिश में तुमको न जलाऊँ तो
कवि होने का अर्थ क्या है?

गर्द यादों पर जमी रहने दो,
बार-बार जो विकल करती
वह चुभन तो मुझे सहने दो.
वो अहसास तुम्हें न कराऊँ तो
कवि होने का अर्थ क्या है?

कुछ फूल मुझे भी चुनने दो,
बिखरे पलों की महकती
सुगन्ध में मुझे रमने दो.
उस गन्ध का यदि परिचय न दूँ तो
कवि होने का अर्थ क्या है?

शीतल सुधा का पता ज्ञात हो,
दग्ध अन्तस् की शान्ति हेतु
उस सुधा का पान मुझे करने दो.
हृदय की शान्ति तुम्हें न दूँ तो
कवि होने का अर्थ क्या है?