Saturday, November 15, 2008

स्वर्ण जयन्ती गान

स्वर्णिम-स्वर्णिम, मधुरिम-मधुरिम,
स्वर्ण दिवस यह आया है
पल-पल, क्षण-क्षण को जीने का
स्वर्णिम अवसर पाया है
स्वर्ण दिवस यह........

इन्तजार जिस पल का हमको
वो पल सामने आया है,
याद रखें ताउम्र जिसे हम
ऐसा अवसर पाया है,
मधु भावों के नव किरणों को
पुलक-पुलक कर गाया हैस्वर्ण दिवस यह........

भाव उदित मन में नव होते
गीत मिलन के गाते हैं,
पुनः-पुनः इस स्वर्णिम क्षण में
इन्द्रधनुष छा जाते हैं,
ह्रदय-ह्रदय को छूकर हमने
झंकारों को लाया हैस्वर्ण दिवस यह........

अत्तदीपा विहरथ की यह
धारा बहती जायेगी,
नेतरहाट के कीर्तिवृक्ष को
विकसित करती जायेगी,
परम्परा और ज्ञान सुसज्जित
इसकी सुंदर काया हैस्वर्ण दिवस यह........

आओ मिलकर स्वर्णिम क्षण में
माता को हम नमन करें,
भावों के इस मधुर मिलन में
संकल्पों को ग्रहण करें ,
इस सृष्टि को नमन करें हम,
भाव मन में आया हैस्वर्ण दिवस यह........

(यह कविता मैंने और मणिशंकर शाही ने मिलकर नेतरहाट विद्यालय की स्वर्ण जयंती(१५ नवम्बर,२००४) के अवसर पर लिखी थी।)

Saturday, October 25, 2008

ओ किरण

किरण !
मुझमें समा
आलोकित कर मुझे
दूर कर अवसाद मेरा
हँसने दे मुझे
फिर से खिलने दे मुझे

* * * * * *
पवन !
मुझमें समा
फैलाने दे पर अपने
असीम नभ में
उड़ने दे मुझे
आज खुलने दे मुझे

Thursday, October 2, 2008

मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ

मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ
या सब कुछ जानता हूँ।
आँखें खोल कर देखूँ
तो सब कुछ ,
मूंद लूँ
तो कुछ भी नहीं।
बस मैं
बंद और खुली आंखें पहचानता हूँ।
किससे क्या दिखता है,
फर्क़ मैं यह जानता हूँ।
खुली आंखों से दर्द दिखता है
जीवन का छल
कटु नग्न सत्य
अपना लघुत्व
आत्मा हरण
चहुंओर पतन
और बहुत कुछ जिससे
भागता हूँ
इसलिये आँखें मूंदता हूँ।
या कहूँ, तो
मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ।

Wednesday, October 1, 2008

चलें हम-तुम

(यह कविता मैंने नेतरहाट छोड़ने के एक महीने पहले लिखी थी. तारीख मुझे अब भी याद है...10 फरवरी,2005. उस जगह से, उस विद्यालय से हम इतनी गहराई तक जुड़ जाते हैं, कि छोड़ते समय हमारी आँखों से अनायास ही आँसू निकल पड़ते हैं. सचमुच इतने अंतराल के बाद अभी भी मैं उस विदाई को स्वीकार नहीं कर पाया हूँ.)

हे मित्र ! चले हम-तुम
नयनों में निज नीर लिए,
कदम बढ़ा रहे हैं आगे
मन में कोई पीर लिए।

चार वर्ष यूँ सिमट चले
लगते मानों बस सपने हैं ,
पर वो मस्ती, वो यादें, वो पल,
वो सपने ही अब अपने हैं।

अश्रुकलश छलकाते चले हम
तार विरह का छेड़ा है.
फिर मिलने का वादा करके
साथ सबों का छोड़ा है।

आँखों से आंसू बहते हैं ,
दिल में बह रहा समंदर है।
जो चाह रहा कहना तुझसे मैं,
रुक रहा हृदय के अंदर है।

मन में बहुत कुछ है उठता ,
जो होठों पर आ नही पाता।
गीत विरह के रचे बहुत हैं,
पर उनको मैं गा नहीं पाता।

इन पंछियों, वृक्षों , पत्तों से
हम बातें फिर ना कर पाएँगे।
ये शांत मधुर, मद्धिम झकोरे
हमें छोड़ बढ़ जाएँगे।

नेतरहाट के रंगों से हमने
जीवन में अपने रंग भरे,
जंगल-झरनों की मस्ती से
मन में निज उमंग भरे।

यह हमारा नीड़ वह सुंदर
जहाँ हमने जीना सीखा था,
यह भूमि स्वर्ग वह सुंदर
जहाँ का हमने सपना देखा था।

चार वर्ष का स्नेहिल सुंदर
छूट चला प्रांगण अब है,
विकल हृदय से भावों का
फूट चला दरिया अब है।

उन पलों को याद कर मन
बार-बार रोता जाता है,
मानों एक अबोध शिशु जब
माता से विलगा जाता है।

हँसते-गाते रोते-लड़ते
चुक चले वे जीवन के पल हैं,
जीवन के स्वर्णिम क्षण सुंदर
लगते जैसे बीते कल हैं।

सोच रहा ऐसा अब मुझको
सुंदर स्वर्ग कहाँ मिलेगा,
प्रकृति का, मित्रों का ऐसा
मधुर संसर्ग कहाँ मिलेगा।

पाया सबसे स्नेहिल आँचल,
अलग हो यह मन रोता है।
एक बात मन में है उठती -
जीने को जीवन छोटा है।

गोद में जिसके बीते ये क्षण
ललित मनोहर क्रीड़ा-प्रांगण,
याद रहेगा हम सब को यह
नेतरहाट का मंजु आँगन।

Thursday, September 18, 2008

तुम्हारे प्रति

खोजता था निविड़ शून्य में
अन्तस् को इक नेह निर्झरी,
मैं तृषित भटका करता था,
पथ-प्रदर्शक मेरी विभावरी

मेरी यात्रा के बिन्दु तुम,
मैं प्यासा मृग मरुभर का;
तुम गहन घन नेह सुधा के,
मैं सुखा, आकुल निर्झर था

मेरे मन में शुचिशील तब
तव भाव प्रतिमा जगती है,
दूर कर अन्तः घन रजनी को
गीत रश्मि के गढ़ती है

निश्छल-सी वह हँसी तरल
मन में कौंध-सी जाती है,
मेघाच्छन्न व्योम में तड़ित् की
ज्यों लकीर खिंच जाती है

मधुर नेह का स्रोत नवल तुम
मैं नेह सुधा का अभिलाषी;
मम प्रेरक विश्वास विशद् तुम,
मैं तव भावराशि का याची

तुममें मेरा विश्वास अगम है,
नीरव तम में तुम लक्ष शिखा;
तुम मेरे प्राणों के ईप्सित,
तुम मेरी अनुपम कविता;

मन-मन्दिर के सांध्यदीप तुम
मम हृदयवेदी की मूर्त्ति हो,
सबसे विशद् सत्य जीवन का
तुम मेरी वही मृत्ति हो

निष्प्राण जब भी होता हूँ,
तत्क्षण ख़ुद में मैं लौटता हूँ;
कहीं निविड़ में बैठा मैं
अवलंब तुझमें खोजता हूँ

तव नेहसूत्र का ऋणी मैं
किस भांति इसे चुकाऊँगा,
उदगार शेष नहीं मुख में अब
हृदय गीत कैसे गाऊँगा

भावों के इस जलधि अतल से
चुन पाया कुछ ही मोती हूँ,
अन्तस् की अनगढ़ सृष्टि का
अनुभवहीन मैं ही शिल्पी हूँ

यह नहीं प्रवंचना मिथ्या है,
यह मेरी अन्तस् वाणी है;
मन में उठते लहरों की
यह सहज सुंदर रागिनी है

ये शब्द हृदय से उपजे है,
इनमें मिथ्या प्रलाप नहीं;
ये स्पंदित लयबद्ध गीत हैं,
किंचित भी परिहास नहीं

मर्त्यलोक का मैं प्राणी
बंधन नया फिर मांगता हूँ,
अनजान इसकी परिणति से
यह सूत्र पावन चाहता हूँ

ये श्रद्धा के फूल समर्पित
लो चाहे या तुम ठुकरा दो,
क्या विभ्रम यह मेरे मन का
मुझ अबोध को समझा दो

डरता हूँ यह भाव लहरी
कहीं प्रवहमान इक स्वप्न नहीं,
तो निद्रा से उठकर कह दूँ-
"भ्रम ही जीवन की कथा रही"।

चाहता हूँ कि मैं तोड़ूँ , मुझे
जकड़ते भावना के जाल को;
पर राह मिलती नहीं, अक्षम हूँ
कुचलने में इस फणव्याल को

हो सके तो राह बता दो
मुझको अपने परित्राण की,
वृथा जाऊँ कोशिश में मैं
शून्य में शर-संधान में






Sunday, August 24, 2008

गीत मेरे प्राण गाओ

गीत मेरे प्राण गाओ
व्यथित मन की इस व्यथा को
मुदित होकर तुम सुनाओ.
गीत मेरे प्राण गाओ

तिमिर छाया है गहन यह,
भूला मैं निज राह को हूँ,
संगी खोजता भ्रमित मैं
राह में एकाकी खडा हूँ।
भ्रमित मन की इस तृषा को
मुदित होकर तुम सुनाओ।
गीत मेरे प्राण गाओ।

ना शिखर पर, ना ही
तल पर,
मैं खड़ा मँझधार में हूँ,
प्राण मेरे पथ सुझाओ,
मैं अगम संसार में हूँ।
अवनत मन की इस दशा को
सहज होकर तुम सुनाओ।
गीत मेरे प्राण गाओ।

प्रश्न अंकित हैं अन्तर में,
अन्जान उसके हल से मैं हूँ,
भाव मेरे तुम ही सकल हो,
बिन तुम्हारे शून्य मैं हूँ।
अनाथ मन की उलझन को
नाथ बनकर तुम हटाओ।
गीत मेरे प्राण गाओ।

अन्जान अब तक ख़ुद से मैं,
राहें कँटीली ही मिली हैं।
वन-विजन, सकल शून्य भुवन में,
कली कंटक से छिदीं हैं।
पीडित मन की वेदना को
हसित मन से तुम सुनाओ।
गीत मेरे प्राण गाओ।

हूँ व्यथित मैं निज हृदय में,
क्या लेना इस से जग को है।
गरल पान करता चला हूँ,
भावामृत देना जग को है।
विकल मन की भावना को
सरल होकर तुम सुनाओ।
गीत मेरे प्राण गाओ।

...

प्रेम मधुर स्पर्श प्रिय का है,
गहन उल्लास निज अन्तर का
अधमुंदे नयनों में स्वप्निल
मुदित हास प्रस्तुत जीवन का

प्रिय होठों से उत्सृत शब्दों
में, खोजता सत्त्व जीवन का
शब्दों के बिना अधरों में
परम सुख पाता जीवन का

नयनों की चितवन में पाता
आनंद धरा पर अम्बर का
अनदेखे, अनकहे शब्दों में,
चिर गान मृण्मय जीवन का

सर्वस्व समर्पण की इच्छा
है ध्येय यह निज अन्तस् का
शब्द कम हैं मेरी झोली में,
सार गहो सकल भावों का

कुछ बातें कहनीं बाकी हैं,
है इंतजार उन प्रहरों का
पाता संबल तन्हाई में मैं
मुस्कान मदिर उन अधरों का

Sunday, August 10, 2008

छूटता जीवन

कभी-कभी अपने बड़े होते जाने पर अफ़सोस होता है, और अपनी बेबसी पे रोना भी आता है याद आते हैं पुराने स्कूल के दिन, जब हम छोटे होते हुए भी ख़ुद को बड़ा महसूस किया करते थे , और अभी का वक्त है कि जब हम बड़े हो गए हैं, किशोरावस्था अब हमें छोड़ने वाली है, तब उस मोड़ पे भी ख़ुद को काफ़ी छोटा (क्षुद्र) पाते हैं अब समझ आता है कि कोई बचपन को इतना क्यों याद करता है, 'वो कागज की कश्ती...वो बचपन की यादें...' का तराना क्यों छेड़ता है...यह अनायास ही निकल पड़ता है सब कुछ स्वतःस्फूर्त होता है, भावनाओं का आवेग... स्कूल के उन प्यारे दिनों में कुछ भी करने में यह अनुभव होता था कि हम यह सब कर रहे हैं... हम 'कर्त्ता' हैं, लेकिन अब वह भावना नहीं पाती है पहले हम ख़ुद ही सिस्टम थे, अब सिस्टम का एक 'औजार' (टूल) भर रह जाने का कटु अहसास होता है मस्ती में भी वह बेतकल्लुफी नहीं रह गई है सब कुछ सोच-समझ कर करना पड़ता है अब अपना संसार नहीं बना पाते हैं, बल्कि दूसरों के बनाये संसार में ख़ुद को खोजना पड़ता है समझ बद्गने के साथ-साथ आदमी का दायरा भी सिकुड़ता चला जाता है बचपन में हम सजीव-निर्जीव का भी अन्तर नहीं करते थे, बच्चों को अपने खिलौनों -गुडियों की भी चिंता रहती थी अब...अब शायद वो बात नहीं रहती है बचपन में जिम्मेदारी उठाने में एक मज़ा-सा आता था, वहीँ अब दायित्व-बोध सर पे बल डाल जाता है उन दिनों की याद ही अब पास रह गयी है......
अभी चार-पाँच दिन पहले मेरे पुराने स्कूल का मेरा एक मित्र यहाँ कोचीन आया हुआ था उससे बातचीत होने के क्रम में पुरानी बातें फिर से निकल पड़ीं उस समय मुझे यह अनुभूति फिर से हो आई वहाँ फैसले हमारे होते थे, मर्जी अपनी होती थी मनोरंजन के लिए बस एक-दूसरे का साथ भर था, लेकिन हम उसी में संतृप्त थे, किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं होती थी अब ढेर सारे साधन हैं, पर उनमें वो भावनाओं की ऊष्मा नहीं है, बस मशीनी पुट है उसी समय मैंने धर्मवीर भारती की 'गुनाहों का देवता' पढ़ी थी, जिसमे लिखा हुआ एक शेर मुझे अभी याद रहा है,
बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों में कहाँ
वह मज़ा ,जो भींगी-भींगी घास पर सोने में है।
मुतमईन बेफिक्र लोगों की हँसी में कहाँ
लुफ़्त, जो एक-दूसरे को देखकर रोने में है।
यह शायद यहाँ के सन्दर्भ में शत-प्रतिशत उपयुक्त भले ही ना बैठ रही हो, लेकिन फिर भी यह बहुत कुछ कह जातीहै...

उन प्यारी यादों में डूबा हुआ...
राघवेन्द्र

Saturday, August 9, 2008

मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ ।

मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ
इस जीवन के प्रेमिल छन्दों को
तुम्हें सुनाता चलता हूँ

नदी को सबने देखा है,
उसकी मस्ती भी देखी है,
उसकी मस्ती का अंश लिए
मैं जमीं नापता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

फूलों में मुस्कान भरी है,
गन्ध, रस, माधुर्य भरा,
उस चितवन का सत्त्व लिए
मैं हँसी बाँटता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

हवा यह ख़ुद में जीवन का
संगीत समाए चलती है,
उस सरगम को साथ लिए
मैं तुम्हें सुनाता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

लयबद्ध गति ही जीवन है,
रुक जाने में वह आन कहाँ,
प्रकृति की अस्फुट लय-लहरी
मैं तुम्हें बताता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

मैं थोड़ा हूँ, मुझे ज्ञात है,
जीवन का यह लघु साथ है,
काम सकूँ औरों के, सो
मैं हाथ बढाता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

जीवन के रंग बहुत देखे हैं,
खुशी और गम भी देखे हैं,
दुःख सहेजकर निज अन्तर में
मैं हर्ष बाँटता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

पीछे कितने दुःख-दर्द भरे,
कितने कंटक हैं आन पड़े,
उनको पीछे छोड़ सरल पथ
मैं तुम्हें दिखाता चलता हूँ
मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ

विरह-मिलन आते-जाते है,
मधुर स्मृतियाँ ही साथी हैं,
उन पल को जी लेने को मैं
संग तुम्हारे हो चलता हूँ

मैं यूँ ही बढ़ता चलता हूँ
इस जीवन के प्रेमिल छन्दों को
तुम्हें सुनाता चलता हूँ