कभी-कभी अपने बड़े होते जाने पर अफ़सोस होता है, और अपनी बेबसी पे रोना भी आता है। याद आते हैं पुराने स्कूल के दिन, जब हम छोटे होते हुए भी ख़ुद को बड़ा महसूस किया करते थे , और अभी का वक्त है कि जब हम बड़े हो गए हैं, किशोरावस्था अब हमें छोड़ने वाली है, तब उस मोड़ पे भी ख़ुद को काफ़ी छोटा (क्षुद्र) पाते हैं। अब समझ आता है कि कोई बचपन को इतना क्यों याद करता है, 'वो कागज की कश्ती...वो बचपन की यादें...' का तराना क्यों छेड़ता है...यह अनायास ही निकल पड़ता है। सब कुछ स्वतःस्फूर्त होता है, भावनाओं का आवेग... । स्कूल के उन प्यारे दिनों में कुछ भी करने में यह अनुभव होता था कि हम यह सब कर रहे हैं... हम 'कर्त्ता' हैं, लेकिन अब वह भावना नहीं आ पाती है। पहले हम ख़ुद ही सिस्टम थे, अब सिस्टम का एक 'औजार' (टूल) भर रह जाने का कटु अहसास होता है। मस्ती में भी वह बेतकल्लुफी नहीं रह गई है। सब कुछ सोच-समझ कर करना पड़ता है। अब अपना संसार नहीं बना पाते हैं, बल्कि दूसरों के बनाये संसार में ख़ुद को खोजना पड़ता है। समझ बद्गने के साथ-साथ आदमी का दायरा भी सिकुड़ता चला जाता है। बचपन में हम सजीव-निर्जीव का भी अन्तर नहीं करते थे, बच्चों को अपने खिलौनों -गुडियों की भी चिंता रहती थी। अब...अब शायद वो बात नहीं रहती है। बचपन में जिम्मेदारी उठाने में एक मज़ा-सा आता था, वहीँ अब दायित्व-बोध सर पे बल डाल जाता है। उन दिनों की याद ही अब पास रह गयी है......
अभी चार-पाँच दिन पहले मेरे पुराने स्कूल का मेरा एक मित्र यहाँ कोचीन आया हुआ था। उससे बातचीत होने के क्रम में पुरानी बातें फिर से निकल पड़ीं। उस समय मुझे यह अनुभूति फिर से हो आई। वहाँ फैसले हमारे होते थे, मर्जी अपनी होती थी। मनोरंजन के लिए बस एक-दूसरे का साथ भर था, लेकिन हम उसी में संतृप्त थे, किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं होती थी। अब ढेर सारे साधन हैं, पर उनमें वो भावनाओं की ऊष्मा नहीं है, बस मशीनी पुट है। उसी समय मैंने धर्मवीर भारती की 'गुनाहों का देवता' पढ़ी थी, जिसमे लिखा हुआ एक शेर मुझे अभी याद आ रहा है,
बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों में कहाँ
वह मज़ा ,जो भींगी-भींगी घास पर सोने में है।
मुतमईन बेफिक्र लोगों की हँसी में कहाँ
लुफ़्त, जो एक-दूसरे को देखकर रोने में है।
यह शायद यहाँ के सन्दर्भ में शत-प्रतिशत उपयुक्त भले ही ना बैठ रही हो, लेकिन फिर भी यह बहुत कुछ कह जातीहै...
उन प्यारी यादों में डूबा हुआ...
राघवेन्द्र
2 comments:
हमे भी लगता है सांसे चल रही है पर जिन्दगी पीछे छूट गयी है
राघवेन्द्र जी, सचमुच मज़ा आगया. बहुत खूब लिखा. लिखते रहिये. शुभकामनायें.
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