Sunday, February 21, 2016

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जो भीतर है, वह बाहर भी है
पानी सा सब कुछ दिखता है,
अब चलो जरा धुंधला हो लूँ
कहो कोई पर्दा कैसा हो।

कुछ अधरों में ही रह जाएँ
भाव गहन गहरे रह जाएँ
थोड़े छन-छन आते जिससे
कहो, वह आवरण कैसा हो।

ना जग मुझमें विस्मृत है
ना मैं जग में विस्तृत हूँ
मेरा मुझमें, जग का जग में
वह बात कहो फिर कैसी हो।


Wednesday, February 3, 2016

मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ

मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ
या सब कुछ जानता हूँ.
आँखें खोल कर देखूँ
तो सब कुछ जानता हूँ,
मूंद लूँ
तो कुछ भी नहीं.
बस मैं
बंद और खुली आंखें पहचानता हूँ.
किनसे क्या दिखता है,
फर्क़ यह मैं जानता हूँ.
खुली आंखों से दर्द दिखता है
जीवन का छल
कटु नग्न सत्य
अपना लघुत्व
और भी बहुत कुछ
जिससे भागता हूँ
इसलिये आँखें मूंदता हूँ,
या कहूँ, तो 
मैं कुछ नहीं जानता हूँ.