Wednesday, May 18, 2016

तुम मेरे ही बन आये हो

मैंने तुमसे पुष्प कहा था,
तुम उपवन ही ले आये हो,
मैंने तुमसे बूँदें मांगी थी,
तुम निर्झर ही बन आये हो।

मैंने तुमसे कुछ पल मांगे थे
तुम जीवन ही ले आये हो,
मैंने तुमसे कुछ शब्द कहे थे
तुम कविता ही बन आये हो।

मैंने तुमको खुद में चाहा था
तुम साँसों में घुल आये हो
मैंने बस एक नजर मांगी थी
तुम आँखों में बस आये हो।

मैंने इक धड़कन मांगी थी
तुम ह्रदय ही बन आये हो,
मैंने बस एक छवि चाही थी
तुम दर्पण ही बन आये हो।

मैंने तुमसे इक अंश कहा था
तुम सकल स्वयं बन आये हो
मैंने तुमसे इक हास कहा था
तुम आनंद मधुर बन आये हो।

मैंने तुमको प्राण कहा था
तुम जीवन ही बन आये हो,
मैंने बस मंज़िल पूछी थी,
तुम राह मेरी बन आये हो।

अब और क्या कहूँ तुमसे,
जब मेरे ही बन आये हो।

Sunday, February 21, 2016

***

जो भीतर है, वह बाहर भी है
पानी सा सब कुछ दिखता है,
अब चलो जरा धुंधला हो लूँ
कहो कोई पर्दा कैसा हो।

कुछ अधरों में ही रह जाएँ
भाव गहन गहरे रह जाएँ
थोड़े छन-छन आते जिससे
कहो, वह आवरण कैसा हो।

ना जग मुझमें विस्मृत है
ना मैं जग में विस्तृत हूँ
मेरा मुझमें, जग का जग में
वह बात कहो फिर कैसी हो।


Wednesday, February 3, 2016

मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ

मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ
या सब कुछ जानता हूँ.
आँखें खोल कर देखूँ
तो सब कुछ जानता हूँ,
मूंद लूँ
तो कुछ भी नहीं.
बस मैं
बंद और खुली आंखें पहचानता हूँ.
किनसे क्या दिखता है,
फर्क़ यह मैं जानता हूँ.
खुली आंखों से दर्द दिखता है
जीवन का छल
कटु नग्न सत्य
अपना लघुत्व
और भी बहुत कुछ
जिससे भागता हूँ
इसलिये आँखें मूंदता हूँ,
या कहूँ, तो 
मैं कुछ नहीं जानता हूँ.

Thursday, January 14, 2016

यादों की गठरी


मैं पुरानी बातों की,
पुरानी यादों की गठरी साथ लिए चलता हूँ.

सुनता हूँ,
उनमें बस अतीत बसता है,
मानव मन उनमें फंसता है,
हम उनमें खोते जाते हैं,
उनमें ही घुलते जाते हैं
पर मैं उनको भी अपने साथ लिए चलता हूँ. 
मैं अपनी यादों की गठरी हाथ लिए चलता हूँ।

पिछले जख्मों की टीस भी है,
छूटे सपनों की प्यास भी है, 
कुछ लम्हों की चुभन भी है,
एक अनकही-सी कसक भी है,
पर ये भी उतने ही अपने हैं,
इन अपनों को जीवन में मैं साथ लिए चलता हूँ. 
मैं अपनी यादों की गठरी हाथ लिए चलता हूँ।

उस गठरी में ही मेरी
कुछ सुंदर यादें बसती हैं,
तुम, मैं और हम, सब की 
प्यारी-सी सूरत सजती है.
इन प्यारी चीजों को, बोलो,
क्यों मैं उन्हें भुला जाऊं,
उन्हें छोड़ क्यों बढ़ जाऊं.
तुम भी तो इनमें ही हो,
मैं तुम्हें भूल ना पाऊंगा,
जीवन के अपने गीतों में
बोल नहीं फिर भर पाऊंगा.
उन यादों को फिर से जीऊंगा,
यह आस जीवन में साथ लिए मैं चलता हूँ.
मैं अपनी यादों की गठरी हाथ लिए चलता हूँ।


Thursday, October 15, 2015

चाहत होती है
इक बूँद की,
होठों से होकर 
हलक को जो छू ले
और जलती-सी प्यास,
वह शांत हो ले.

और
बूँद मिलती भी है
हलक को
शांत होने को,
प्यास बुझाने को,
पर बुझती नहीं है,
और भी धधक जाती है,
बूँद की नहीं अब,
स्रोत की चाह होती है,
उसके अनवरत बहते 
शीतल मधु धार में
होठों को सतत 
भिंगोये रखने की चाह होती है,
उस धार में 
डूबे रहने की  चाह होती है.