Friday, August 8, 2008

कौन तुम?

कौन तुम मेरे स्वप्नों में आयी
तड़ित् दामिनी-सी क्षण भर में,
चिर संचित प्रणय रस बहाकर
इस विकल जीवन निर्झर में।

व्याकुल मैं तव सहज रूप से
हूँ खोजता उत्तर स्वयं का,
क्या संज्ञा दूँ उस स्वरूप को,
किस भाँति मैं निरखूँ तुझको।

अन्तस् गहन में उद्भावित
भावों की सृष्टि हो तुम,
मंजुल मधुर स्वप्नों की
प्रणय पगी रागिनी हो तुम।

स्निग्ध भावों की बाँहों में
स्मित उर की कल्पना हो तुम,
प्रणय काल में विरही की
नित सामीप्य की ऐषणा हो तुम।

सौंदर्य सुलभ मुस्कान खोजते
चातक की स्वाति हो तुम,
स्पर्शहीन कल्पना सुसज्जित
वरेण्य भावमूर्त्ति हो तुम।

वरण की वह मौन स्वीकृति
सौम्य सुखद प्रेरणा हो तुम,
सहज सुकोमल भाव मोहिनी
उर अंकित कामना हो तुम।

यथार्थ या मरीचिका क्या, तुम
क्या बस एक छलावा हो,
मीठे स्वप्नों में उलझा रहूँ
क्या तुम वही भुलावा हो।

पर नहीं , तुम मेरी कृति हो,
तुम मेरी उर-निवासिनी,
तुम वरेण्य मेरी बाँहों में,
तुम मेरी चिर मनःसंगिनी।






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