Friday, August 1, 2008

क्या बात कहूं मैं


प्रस्तुत पल, बीते लम्हों में,
रीते-रीते से प्रहरों में,
जीवन की सर्पिल लहरों में।
फिर क्या अपनी बात कहूँ मैं।

छलते स्वप्नों की दुनिया में,
उभरे शब्दों की छलना में,
छलते जीवन की तृष्णा में,
किस यथार्थ की बात करूँ मैं।
फिर क्या अपनी बात कहूँ मैं।

वन की मादक हरियाली में,
ज्वलित तारक की थाली में,
सूने कोरों की बेहाली में,
किन लम्हों की बात करूँ मैं।
फिर क्या अपनी बात कहूँ मैं।

क्षण-क्षण घिर आते पतझड़ में,
अन्तर्वेधी पीड़ा गह्वर में,
दर-दर पर खाते ठोकर में,
किन कष्टों की बात करूँ मैं।
फिर क्या अपनी बात कहूँ मैं।

उर से उपजी आकुलता में,
रात्रि की स्याह विगलता में,
जीवन की क्रूर कुटिलता में,
किस संबल की बात करूँ मैं।
फिर क्या अपनी बात कहूँ मैं।

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