Wednesday, October 1, 2008

चलें हम-तुम

(यह कविता मैंने नेतरहाट छोड़ने के एक महीने पहले लिखी थी. तारीख मुझे अब भी याद है...10 फरवरी,2005. उस जगह से, उस विद्यालय से हम इतनी गहराई तक जुड़ जाते हैं, कि छोड़ते समय हमारी आँखों से अनायास ही आँसू निकल पड़ते हैं. सचमुच इतने अंतराल के बाद अभी भी मैं उस विदाई को स्वीकार नहीं कर पाया हूँ.)

हे मित्र ! चले हम-तुम
नयनों में निज नीर लिए,
कदम बढ़ा रहे हैं आगे
मन में कोई पीर लिए।

चार वर्ष यूँ सिमट चले
लगते मानों बस सपने हैं ,
पर वो मस्ती, वो यादें, वो पल,
वो सपने ही अब अपने हैं।

अश्रुकलश छलकाते चले हम
तार विरह का छेड़ा है.
फिर मिलने का वादा करके
साथ सबों का छोड़ा है।

आँखों से आंसू बहते हैं ,
दिल में बह रहा समंदर है।
जो चाह रहा कहना तुझसे मैं,
रुक रहा हृदय के अंदर है।

मन में बहुत कुछ है उठता ,
जो होठों पर आ नही पाता।
गीत विरह के रचे बहुत हैं,
पर उनको मैं गा नहीं पाता।

इन पंछियों, वृक्षों , पत्तों से
हम बातें फिर ना कर पाएँगे।
ये शांत मधुर, मद्धिम झकोरे
हमें छोड़ बढ़ जाएँगे।

नेतरहाट के रंगों से हमने
जीवन में अपने रंग भरे,
जंगल-झरनों की मस्ती से
मन में निज उमंग भरे।

यह हमारा नीड़ वह सुंदर
जहाँ हमने जीना सीखा था,
यह भूमि स्वर्ग वह सुंदर
जहाँ का हमने सपना देखा था।

चार वर्ष का स्नेहिल सुंदर
छूट चला प्रांगण अब है,
विकल हृदय से भावों का
फूट चला दरिया अब है।

उन पलों को याद कर मन
बार-बार रोता जाता है,
मानों एक अबोध शिशु जब
माता से विलगा जाता है।

हँसते-गाते रोते-लड़ते
चुक चले वे जीवन के पल हैं,
जीवन के स्वर्णिम क्षण सुंदर
लगते जैसे बीते कल हैं।

सोच रहा ऐसा अब मुझको
सुंदर स्वर्ग कहाँ मिलेगा,
प्रकृति का, मित्रों का ऐसा
मधुर संसर्ग कहाँ मिलेगा।

पाया सबसे स्नेहिल आँचल,
अलग हो यह मन रोता है।
एक बात मन में है उठती -
जीने को जीवन छोटा है।

गोद में जिसके बीते ये क्षण
ललित मनोहर क्रीड़ा-प्रांगण,
याद रहेगा हम सब को यह
नेतरहाट का मंजु आँगन।

3 comments:

Anonymous said...

NETARHAT ki yaadon ko ek sutra mai pirina aasan kaam nai hai. iske naam matra se wo 4 salo ka netarhat mai bitaya apna bachpan aakhon ke samne anayas hi aa jata hai. wo masti bhare pal, dosto se manmutao, class dakna, nayna ghumna kabhi bhula nai sakta. 4 saalo mai sabse dukdayi tha wo hamara NETARHAT se vidayi....

yaar... kuch bhi kaho NEATRHAT se hame jo mila hai wo hum kabhi nai bhul sakte..

raghwendra thanks.. un sunehri yaaden ko panktiyon mai dhalne ke liye..

Shubham Saloni said...

really a good one...
it made me remember my own skool dayz...

ragini said...

"इन पंछियों, वृक्षों , पत्तों से
हम बातें फिर ना कर पाएँगे।
ये शांत मधुर, मद्धिम झकोरे
हमें छोड़ बढ़ जाएँगे।"

ख़ता उन झकोरों का नहीं बल्कि हमलोगों का दुर्भाग्य है की पुनः वहां न पहुँच सके....ऐसा क्यूँ होता है की गलतियाँ हमारी होती है और हम अपने ख्वाब के टूटने का ठीकरा अक्सर प्रकृति पे फोड़ा करते हैं.....

पढ़कर मुझे अपने नेतार्हत के दिन याद गए.... काश की हम फिर से उस छोटी सी दुनिया में बड़े बड़े ख्वाब बुन पाते..काश...काश वो दिन फिर आ जाता