Sunday, February 7, 2010

रेलगाड़ी का आखिरी डिब्बा और क्षेत्रवाद

रेलगाड़ी के आखिरी डिब्बे और समस्याओं में बड़ा ही रोचक सम्बन्ध है. और इस सम्बन्ध को हमारे प्रधानाचार्य काफी रोचक ढंग से समझाया करते थे. उनका वर्णन कुछ इस तरह से हुआ करता था - "रेलगाड़ी अक्सर दुर्घटनाओं का शिकार हो जाया करती थीं. उसमें भी अधिकांशतः पिछले डिब्बे में ही इंजन की ठोकर लगा करती थी और वो बुरी तरह से बर्बाद हो जाता था. जान-माल की काफी हानि पहुँचती थी. समस्या गंभीर थी. तब इस समस्या के निदान के लिए सरकार ने इक समिति का गठन किया. काफी छानबीन के बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट दी - "रेलगाड़ी के आखिरी डिब्बे को ही हटा दिया जाए. 'ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बांसुरी'. दुर्घटना ही नहीं होगी." समिति के सुझावों पर तत्काल प्रभाव से अमल किया गया. फिर भी दुर्घटना-पर-दुर्घटना होती रही. सरकार फिर परेशान..........नयी समिति बनायी गयी. इस बार संयोग से कुछ ज्यादा बुद्धिमान लोग मौजूद थे. फिर से दुर्घटनाओं पर नजर रखी गयी. तब जाकर यह मालूम हुआ कि आखिरी डिब्बे को हटाने के बाद जो डिब्बे बचते थे, उनमें भी इक डिब्बा आखिरी डिब्बा हो जाता था. अब अगर आखिरी डिब्बा रहेगा, तो दुर्घटनाएं तो होंगी हीं. अंत में समिति की ओर से सिफारिश आयी - " रेलगाड़ी के सारे डिब्बे हटा दिए जाएँ." परिणाम यह हुआ की रेलगाड़ी का चलना ही बंद हो गया, क्योंकि आगे चलकर इंजन भी आपस में टकराने लगे थे." यह दृष्टान्त काफी रोचक भी था और शिक्षाप्रद भी.
तो यह थी हमारे श्रद्धेय प्रधानाचार्य महोदय की बात. और आज यह महसूस होता है कि यह बात सिर्फ रेलगाड़ी के चलने भर से सम्बंधित नहीं थी, बल्कि यह हमारे समाज की, हमारे जीवन की गाडी पर भी उतनी ही लागू होती है. आज हमारे राष्ट्र की कई समस्याएं इससे सम्बद्ध नजर आ रही हैं, जैसे- क्षेत्रवाद, भाषावाद, कट्टरवाद, साम्प्रदायिकता, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, और ना जाने कितना कुछ...
आज की तारीख की एक बहुत बड़ी समस्या, जो हमारे प्यारे भारतवर्ष को घुन की तरह खाए जा रही है, वह है- क्षेत्रवाद की समस्या. इसका निदान अगर उस रेलगाड़ी वाली समिति के तरीके की तरह से किया जाये तो यह कुछ इस तरह से होगी...."क्षेत्रवाद की समस्या से निपटने के लिए देश में इसके कारणों पे जाना होगा. चूँकि हरेक व्यक्ति को उसके विकास का इतना मौका नहीं मिल पाता है, कि वो अपना समुचित विकास कर सके, तो इसके लिए भारत को इतने टुकड़ो में बाँट दिया जाए ताकि हरेक व्यक्ति को पूरे-पूरे अवसर मिल सकें. हर मोहल्ले का, हो सके तो हर घर, हर व्यक्ति की अपनी कुछ थोड़ी-सी जमीन होगी, अपना झंडा होगा, अपना-अपना संविधान होगा. विकास की तब पूरी सम्भावना होगी. इस मोहल्ले का आदमी पड़ोस के मोहल्ले में व्यापार-रोजगार करने नहीं जा सकता है. इस मोहल्ले का ग्वाला अगर बगल के मोहल्ले में दूध देता है, तो इससे एक तो अपने मोहल्ले के स्त्रोत पर दूसरे मोहल्ले की नजर लग रही है, और दूसरे मोहल्ले वाले की नजर में यह उनके क्षत्र के ग्वाले की रोजी-रोटी पे लात मारने की पहले मोहल्ले की साजिश होगी. क्षेत्र की अक्षुण्णता का पूरा-पूरा सम्मान होगा." इससे तो यही सीख मिलती है कि अंग्रेजों की 'फूट डालो, और शासन करो' कि नीति ही आज देश में क्षेत्रवाद की बढती समस्या से निजात दिला सकती है. और देश में नेताओं की मांग बढ़ जायेगी, देश में बढती बेरोजगारी की समस्या से निपटने का यह काफी सरल और रामबाण उपाय है.
यह सब देखने पर एक आम आदमी शायद यह सोचने को जरुर मजबूर हो जाता होगा कि पता नहीं, लोगों ने एक साथ मिलकर आजादी की लड़ाई कैसे लड़ी होगी. कैसे पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्कल, बंग,विन्ध्य, हिमाचल आदि कैसे साथ में आये होंगे. गंगा-जमुना की गोद में बसे बिहार, उत्तरप्रदेश के लोगों ने कैसे गोदावरी नदी की गोद में बसे आन्ध्र के साथ मिलकर आजादी के लिए अपने खून की होली खेली होगी. कन्याकुमारी और कश्मीर कैसे साथ आये होंगे. सौराष्ट्र से अरुणाचल तक लोगों का आपसी सद्भाव का सेतु कैसे विकसित हुआ होगा. बचपन में हमें स्कूलों में पढाया जाता था- " भारत विविधताओं में एकता का देश है". आज बड़ा होकर देखता हूँ, तो पाता हूँ, कि विविधताएं तो निस्संदेह हैं, पर एकता न जाने कहाँ खो-सी गयी है. क्षेत्रवाद का घुन देश को, लोगों के दिलों-दिमाग को खाए जा रहा है.
'क्षेत्रीयता / क्षेत्रवाद' से तात्पर्य है- 'देश के विभिन्न भागों का 'राजनीतिक राष्ट्रीयकरण'. भारत 'राज्यों का इक संघ' है, जिसमें सांस्कृतिक रूप से कई राष्ट्र सम्मिलित हैं, भारत की आत्मा को प्रिय 'संगच्छद्वम, सम्वद्ध्वम् ' और 'संघे शक्ति कलियुगे' की भावना ना जाने कहाँ चली गयी है. यहाँ की सामासिक संस्कृति हमारी विशेषता है. लेकिन जब इसी सामासिक संस्कृति में व्यक्तियों के कुछ समूह जब अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए राष्ट्र की संस्कृति में जब राजनीतिक जहर घोलने लगते हैं, तो वही बहुत खतरनाक हो जाता है. भारत की परिकल्पना इक परिवार के स्वरुप में ही सदा से की जाती रही है, पर आज इस परिवार में जो कुछ आज आगे पहुँच गए हैं, उन्हें अपने से पीछे छूटे स्वजनों का कोई ख्याल नहीं है. और जो पीछे छूते रहते हैं, उनमें सुलगती असंतोष की भावना भी पारिवारिक ताने-बाने को क्षति पहुँचा रही है. आज के युग में हममें से कई शिक्षा-रोजगार के सिलसिले में देश में ही इधर-उधर आते-जाते रहते हैं. आज जब भारत की विविध संस्कृतियों को आपस में घुल-मिलकर इक सामासिक संस्कृति बनानी चाहिए थी, तो कुछ लोग अपनी राजनीति की दूकान चलने के लिए देश की आत्मा को ही बंधक बनाये हुए हैं. आज हमारे देश में क्षेत्रवाद के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, वह होना नहीं चाहिए. हमारे देश को आगे की ओर बढ़ना है. और राष्ट्रनिर्माण के यज्ञ में देश के सभी हिस्सों के लोगों ने खुद की आहुति दी है. जब घर में ही एकता नहीं होगी, तो हम बाहर का मुकाबला कैसे कर सकते हैं. भारत एक चेतना है, एक जीवनशैली है, एक गीत है, जिसमें हम सभी भारतीय सम्मिलित हैं. अगर एक संगीत समारोह में अनेक वाद्ययंत्रों में अगर कोई एक वाद्ययंत्र ख़राब हो जाये या खुद को श्रेष्ठ समझते हुए बाकी का साथ देने से इनकार कर दे, तो सुर कहाँ-के-कहाँ चले जायेंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. हमसबों को अपने एस प्यारे भारतवर्ष को बचाना है, जो ना जाने कितनी समस्याओं से यूं ही घिरा हुआ है. बगल के पड़ोसी हमारे देश पे गिद्ध-दृष्टि लगाये बैठे हैं. ना जाने कितने भूखे,लाचार, बेरोजगार हैं, उनके लिए कुछ रचनात्मक, सकारात्मक कार्य किया जाये, तो यह सबों के लिए अच्छा होगा. अन्यथा भारत उसी ब्रिटिश गुलामी के दिनों में लौट जाएगा, जब भारत में राष्ट्रवाद नाम की कोई चीज नहीं थी, रियासत-रजवाड़े आपस में ही लड़ा करते थे. आपस में ही कटकर मरना कोई बहादुरी की निशानी नहीं है.
सो हम सब साथ मिलकर बढें, साथ-साथ शक्तियों का संवर्धन करें. भारत को फिर से जगदगुरु बनायें. एक अकेली अंगुली में नहीं, बल्कि शक्ति मुट्ठी में होती है. -
ॐ सहनाववतु, सहनौभुनक्तु,सहवीर्यं करवावहे.
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावाहे.


2 comments:

Kasturi said...

The analogy between a train n nation is interesting n very relevant given the current atmosphere of chauvinism prevailing in different parts of the country.The fact that these demagogues have lost elections drives home the point that people aren't going to buy their rubbish "ideologies". But still they are busy whipping up more hysteria hoping that cranking up the volume and violence will lure the voters. These fools fail to understand the changing demography and aspirations of the population.If any agenda matters today it is the agenda of development. These histrionics will only alienate the voters further. one can't help laughing at their brazen hypocrisy. They criticize the Aussies for attacking Indians when they themselves are busy doing the same thing back home.
A point well made..good work as usual..and tell u what.. this time i didn't have much difficulty in understanding :)

Unknown said...

buddy nice 1
teri lekhni kamal ki ho gayi hai
keep it up