Saturday, November 28, 2009

पावस प्रिया

मेघिल आवरण से झलकते
लघु जलकण का मृदु भार लिये
निखरे कोमल मुख पर कुछ
अनकही-सी झिझक दिखती है

कोरों से गिरते जलकण में,
जलकण से झरती किरणों में ,
बिखरी-बिखरी, ठहरी-ठहरी
उसकी एक झलक आती है।

मौन गाछ की स्नात ओट में,
गहन पवन के मृदु जोर में,
उस प्रिय सद्यः स्नात रूप की
मोहक एक झलक
दिखती है।

रिमझिम बूंदों से भींगी-सी
भीनी -भीनी प्यारी-प्यारी
मदिर झकोरों संग तिरती
उसकी एक महक आती है।

बरखा के रिमझिम प्रलाप में
व्याकुल झंझा की पुकार में
ख़ुद में खोयी-सी सिमटी-सी
उसकी एक झलक दिखती है।

पल-पल घिर आते अम्बर में
चहुँ दिश फैले शून्य विवर में
हलकी गहराती धुंध में
उसकी विन्यस्त छवि ढलती है।

पावस के सद्यः प्रयाण में
मद्धिम पड़ते मेघगान में
धीरे-धीरे बड़े जतन से
उसकी बंद पलक खुलती है।
फिर नन्हीं-नन्हीं गर्म-गर्म
उससे दो बूँदें ढलतीं हैं।

4 comments:

Shubham Saloni said...

this is one the yr best poems:)
i liked it a lot!!

Raghvendra said...

thanks a lot..:)

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

its really nice
a beatiful peom
nice work...!!!!!