Friday, May 29, 2015

चलो मैं लिखता हूँ...

तुम कहते हो - कुछ तुम लिखो,
क्यों कहते हो कि तुम लिखो

क्या लिखूँ इन पन्नों पर ,
जीवन का क्या गीत लिखूं,
इन कोरे-काले शब्दों में
मैं कैसा संगीत रचूँ ?

सोचा था आनंद हृदय का
तुममें सारा भर डालूँ ,
श्वेत- श्याम-से जीवन के
बचे रंग तुम्हें दे डालूँ

पर क्या करुँ- हृदय का विषाद
शब्दों में स्वतः उभर आता है
लिखने को बैठा श्वेत पक्ष मैं
स्याह स्वयं छलक जाता है

यही सोच चुप बैठा था कि
कब तक तुम्हें रुलाऊंगा,
अपने हृदय का बोझ भला
कब तक तुम्हें सहाऊंगा

फिर आज तुमने ही कहा-
कुछ तो लिखो, कुछ तो कहो,
दिनों तक मौन रहे तुम,
उन पलों की तुम आज कहो

जब तुम कहते हो- लिखो,
तो चलो, आज मैं लिखता हूँ,
मौन पड़े जो छंद हृदय में
आज उन्हें मैं कहता हूँ




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