आगे लम्बी सड़क खुली थी,
मौसम भी खुला-खुला-सा था,
अन्दर से कुछ उमड़ा-सा था,
खुली सड़क पर बाहें फैलाए
मैं उन्मुक्त दौड़ा था,
राह चलते बच्चे अचानक
मुझे देखकर हँस पड़े,
और सोच में डाल गए-
'अब मैं शायद बड़ा हो गया।'
* * * * * * * * *
बारिश की टिप-टिप बूँदें थी,
कुछ चेहरे पे, कुछ हाथों पर,
मीठी-मीठी, प्यारी-सी थीं,
रिमझिम फुहार में बाहें खोले
मैं स्वछन्द निकला था,
कुछ लोग रह चलते अचानक
मुझे देखकर हँस पड़े,
और शायद कह गए-
'अब मैं शायद बड़ा हो गया।'
3 comments:
gud... lekin aur behtar hone ki gunjayish hai.....
hey raghvendra...i cme to understand u as an authentic n natural person at sankalp bt i never realized tht u r also creative n sensitive...i glanced through all ur poems; even though i dont understand poetry vry well i cn confidently say tht they were tremendous...hope to see mny mny more frm u...tc.
waaah
truly speaking
wht's you've written wah!
keep it up.
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