खोजता था निविड़ शून्य में
अन्तस् को इक नेह निर्झरी,
मैं तृषित भटका करता था,
पथ-प्रदर्शक मेरी विभावरी।
मेरी यात्रा के बिन्दु तुम,
मैं प्यासा मृग मरुभर का;
तुम गहन घन नेह सुधा के,
मैं सुखा, आकुल निर्झर था।
मेरे मन में शुचिशील तब
तव भाव प्रतिमा जगती है,
दूर कर अन्तः घन रजनी को
गीत रश्मि के गढ़ती है।
निश्छल-सी वह हँसी तरल
मन में कौंध-सी जाती है,
मेघाच्छन्न व्योम में तड़ित् की
ज्यों लकीर खिंच जाती है।
मधुर नेह का स्रोत नवल तुम
मैं नेह सुधा का अभिलाषी;
मम प्रेरक विश्वास विशद् तुम,
मैं तव भावराशि का याची।
तुममें मेरा विश्वास अगम है,
नीरव तम में तुम लक्ष शिखा;
तुम मेरे प्राणों के ईप्सित,
तुम मेरी अनुपम कविता;
मन-मन्दिर के सांध्यदीप तुम
मम हृदयवेदी की मूर्त्ति हो,
सबसे विशद् सत्य जीवन का
तुम मेरी वही मृत्ति हो।
निष्प्राण जब भी होता हूँ,
तत्क्षण ख़ुद में मैं लौटता हूँ;
कहीं निविड़ में बैठा मैं
अवलंब तुझमें खोजता हूँ।
तव नेहसूत्र का ऋणी मैं
किस भांति इसे चुकाऊँगा,
उदगार शेष नहीं मुख में अब
हृदय गीत कैसे गाऊँगा।
भावों के इस जलधि अतल से
चुन पाया कुछ ही मोती हूँ,
अन्तस् की अनगढ़ सृष्टि का
अनुभवहीन मैं ही शिल्पी हूँ।
यह नहीं प्रवंचना मिथ्या है,
यह मेरी अन्तस् वाणी है;
मन में उठते लहरों की
यह सहज सुंदर रागिनी है।
ये शब्द हृदय से उपजे है,
इनमें मिथ्या प्रलाप नहीं;
ये स्पंदित लयबद्ध गीत हैं,
किंचित भी परिहास नहीं।
मर्त्यलोक का मैं प्राणी
बंधन नया फिर मांगता हूँ,
अनजान इसकी परिणति से
यह सूत्र पावन चाहता हूँ।
ये श्रद्धा के फूल समर्पित
लो चाहे या तुम ठुकरा दो,
क्या विभ्रम यह मेरे मन का
मुझ अबोध को समझा दो।
डरता हूँ यह भाव लहरी
कहीं प्रवहमान इक स्वप्न नहीं,
तो निद्रा से उठकर कह दूँ-
"भ्रम ही जीवन की कथा रही"।
चाहता हूँ कि मैं तोड़ूँ , मुझे
जकड़ते भावना के जाल को;
पर राह मिलती नहीं, अक्षम हूँ
कुचलने में इस फणव्याल को।
हो सके तो राह बता दो
मुझको अपने परित्राण की,
वृथा न जाऊँ कोशिश में मैं
शून्य में शर-संधान में।
अन्तस् को इक नेह निर्झरी,
मैं तृषित भटका करता था,
पथ-प्रदर्शक मेरी विभावरी।
मेरी यात्रा के बिन्दु तुम,
मैं प्यासा मृग मरुभर का;
तुम गहन घन नेह सुधा के,
मैं सुखा, आकुल निर्झर था।
मेरे मन में शुचिशील तब
तव भाव प्रतिमा जगती है,
दूर कर अन्तः घन रजनी को
गीत रश्मि के गढ़ती है।
निश्छल-सी वह हँसी तरल
मन में कौंध-सी जाती है,
मेघाच्छन्न व्योम में तड़ित् की
ज्यों लकीर खिंच जाती है।
मधुर नेह का स्रोत नवल तुम
मैं नेह सुधा का अभिलाषी;
मम प्रेरक विश्वास विशद् तुम,
मैं तव भावराशि का याची।
तुममें मेरा विश्वास अगम है,
नीरव तम में तुम लक्ष शिखा;
तुम मेरे प्राणों के ईप्सित,
तुम मेरी अनुपम कविता;
मन-मन्दिर के सांध्यदीप तुम
मम हृदयवेदी की मूर्त्ति हो,
सबसे विशद् सत्य जीवन का
तुम मेरी वही मृत्ति हो।
निष्प्राण जब भी होता हूँ,
तत्क्षण ख़ुद में मैं लौटता हूँ;
कहीं निविड़ में बैठा मैं
अवलंब तुझमें खोजता हूँ।
तव नेहसूत्र का ऋणी मैं
किस भांति इसे चुकाऊँगा,
उदगार शेष नहीं मुख में अब
हृदय गीत कैसे गाऊँगा।
भावों के इस जलधि अतल से
चुन पाया कुछ ही मोती हूँ,
अन्तस् की अनगढ़ सृष्टि का
अनुभवहीन मैं ही शिल्पी हूँ।
यह नहीं प्रवंचना मिथ्या है,
यह मेरी अन्तस् वाणी है;
मन में उठते लहरों की
यह सहज सुंदर रागिनी है।
ये शब्द हृदय से उपजे है,
इनमें मिथ्या प्रलाप नहीं;
ये स्पंदित लयबद्ध गीत हैं,
किंचित भी परिहास नहीं।
मर्त्यलोक का मैं प्राणी
बंधन नया फिर मांगता हूँ,
अनजान इसकी परिणति से
यह सूत्र पावन चाहता हूँ।
ये श्रद्धा के फूल समर्पित
लो चाहे या तुम ठुकरा दो,
क्या विभ्रम यह मेरे मन का
मुझ अबोध को समझा दो।
डरता हूँ यह भाव लहरी
कहीं प्रवहमान इक स्वप्न नहीं,
तो निद्रा से उठकर कह दूँ-
"भ्रम ही जीवन की कथा रही"।
चाहता हूँ कि मैं तोड़ूँ , मुझे
जकड़ते भावना के जाल को;
पर राह मिलती नहीं, अक्षम हूँ
कुचलने में इस फणव्याल को।
हो सके तो राह बता दो
मुझको अपने परित्राण की,
वृथा न जाऊँ कोशिश में मैं
शून्य में शर-संधान में।
3 comments:
तुम्हारे ब्लाग पर आकर पता चलता है कि हिन्दी क्या होती है।
हाँ, यह Word Verification हटा दो।और ad भी।
hindi aisi hi hai dost .
kaviyon aur lekhakon ki kalm se hamehsa navvadhu hi pratit hoti hai..
atyant aakarshak aur snehpoorn..
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