मेघिल आवरण से झलकते
लघु जलकण का मृदु भार लिये
निखरे कोमल मुख पर कुछ
अनकही-सी झिझक दिखती है।
कोरों से गिरते जलकण में,
जलकण से झरती किरणों में ,
बिखरी-बिखरी, ठहरी-ठहरी
उसकी एक झलक आती है।
मौन गाछ की स्नात ओट में,
गहन पवन के मृदु जोर में,
उस प्रिय सद्यः स्नात रूप की
मोहक एक झलक दिखती है।
रिमझिम बूंदों से भींगी-सी
भीनी -भीनी प्यारी-प्यारी
मदिर झकोरों संग तिरती
उसकी एक महक आती है।
बरखा के रिमझिम प्रलाप में
व्याकुल झंझा की पुकार में
ख़ुद में खोयी-सी सिमटी-सी
उसकी एक झलक दिखती है।
पल-पल घिर आते अम्बर में
चहुँ दिश फैले शून्य विवर में
हलकी गहराती धुंध में
उसकी विन्यस्त छवि ढलती है।
पावस के सद्यः प्रयाण में
मद्धिम पड़ते मेघगान में
धीरे-धीरे बड़े जतन से
उसकी बंद पलक खुलती है।
फिर नन्हीं-नन्हीं गर्म-गर्म
उससे दो बूँदें ढलतीं हैं।
Saturday, November 28, 2009
Sunday, October 25, 2009
कैसे लिखूं.........
कुछ मैं भी लिखना चाहता हूँ, कहना चाहता हूँ, लेकिन पहले मुझे लोगों को सुनना भी होगा। यह कम थोड़ा मुश्किल जरुर है, उतने ही काम का है। कुछ भी लिखने से पहले लोगों को समझना पड़ता है, उनके अनुभवों में ख़ुद को ढालना पड़ता है। यहीं आत्मानुभूति की बात आती है। कोई कहता है कि साहित्य आत्मानुभूति होती है, कोई इसे परकीय-प्रवेश विद्या कहता है। इस लिए कभी-कभी उलझन में फँस जाता हूँ। क्या सही है, और क्या ग़लत।
अगर इसे पूर्णतया अनुभूति से जोड़ दिया जाए ,तब तो लिखने में भी काफ़ी दिक्कतें आ सकती हैं। एक अकेला आदमी कहाँ-कहाँ से अनुभव इकट्ठा करे, और तब जाकर लिखे। इसमे तो सारी जिन्दगी ही पार हो जायेगी। छूट तो थोडी बहुत लेनी ही पड़ती है, लेकिन छूट की परिधि तय कर पाना काफ़ी मुश्किल काम है। कैसे लिखूं , क्या लिखूं...यह सब सोचना पड़ता है। यही पर शायद समाज की जरुरत पड़ती है। अकेला आदमी समाज से उन अनुभवों का निचोड़ लेकर अपना बहुमूल्य समय बचा पाता है। मैं भी इस कोशिश में लगा रहता हूँ , कि दूसरों को भी महसूस करुँ। कहूँ तो, आत्मानुभूति और परकीय-प्रवेश विद्या का सम्मिश्रण होना चाहिए।
बस इसी खोज में लगा हुआ हूँ.......तब तक अनगढ़ ही सही..........
अगर इसे पूर्णतया अनुभूति से जोड़ दिया जाए ,तब तो लिखने में भी काफ़ी दिक्कतें आ सकती हैं। एक अकेला आदमी कहाँ-कहाँ से अनुभव इकट्ठा करे, और तब जाकर लिखे। इसमे तो सारी जिन्दगी ही पार हो जायेगी। छूट तो थोडी बहुत लेनी ही पड़ती है, लेकिन छूट की परिधि तय कर पाना काफ़ी मुश्किल काम है। कैसे लिखूं , क्या लिखूं...यह सब सोचना पड़ता है। यही पर शायद समाज की जरुरत पड़ती है। अकेला आदमी समाज से उन अनुभवों का निचोड़ लेकर अपना बहुमूल्य समय बचा पाता है। मैं भी इस कोशिश में लगा रहता हूँ , कि दूसरों को भी महसूस करुँ। कहूँ तो, आत्मानुभूति और परकीय-प्रवेश विद्या का सम्मिश्रण होना चाहिए।
बस इसी खोज में लगा हुआ हूँ.......तब तक अनगढ़ ही सही..........
Sunday, February 8, 2009
शारदा-स्तुति
वासंती माँ, यह नमन गहो तुम,
अन्तःतम का शमन करो तुम,
तव सृष्टि के नव उद्भव हम,
जन-जीवन की ज्योत् महद् तुम।
जीवन में शुचिता, संयम हो,
निज स्नेह से हमको भर दो,
विकसित हो यह नव जन-जीवन,
माँ, संशय का मूल मिटा दो।
विद्या की परिणति भक्ति-विनय,
है भक्ति भावना आत्म उदय,
संग रहे तेरा हाथ सदा,
हो हम अबोध का ज्ञानोदय।
श्रद्धा गदगद् , नेत्र अश्रुमय,
दर्शन तेरा मातु प्रेममय,
कलुष मिटा हमको दो जीवन,
चित्तवृत्ति अपनी हो भक्तिमय।
अन्तःतम का शमन करो तुम,
तव सृष्टि के नव उद्भव हम,
जन-जीवन की ज्योत् महद् तुम।
जीवन में शुचिता, संयम हो,
निज स्नेह से हमको भर दो,
विकसित हो यह नव जन-जीवन,
माँ, संशय का मूल मिटा दो।
विद्या की परिणति भक्ति-विनय,
है भक्ति भावना आत्म उदय,
संग रहे तेरा हाथ सदा,
हो हम अबोध का ज्ञानोदय।
श्रद्धा गदगद् , नेत्र अश्रुमय,
दर्शन तेरा मातु प्रेममय,
कलुष मिटा हमको दो जीवन,
चित्तवृत्ति अपनी हो भक्तिमय।
सद्गुण विकसित प्रतिक्षण, प्रतिपल
ज्ञान बने हम सब का संबल,
करते माँ हम तेरा वंदन
चित्त रहे हम सब का अविचल।
असत् भाव का करते तर्पण,
सारे भाव तुझी को अर्पण,
आस्था का यह दीप जले माँ,
हम तुझसे करते यह याचन।
ज्ञान बने हम सब का संबल,
करते माँ हम तेरा वंदन
चित्त रहे हम सब का अविचल।
असत् भाव का करते तर्पण,
सारे भाव तुझी को अर्पण,
आस्था का यह दीप जले माँ,
हम तुझसे करते यह याचन।
अब मैं शायद बड़ा हो गया
आगे लम्बी सड़क खुली थी,
मौसम भी खुला-खुला-सा था,
अन्दर से कुछ उमड़ा-सा था,
खुली सड़क पर बाहें फैलाए
मैं उन्मुक्त दौड़ा था,
राह चलते बच्चे अचानक
मुझे देखकर हँस पड़े,
और सोच में डाल गए-
'अब मैं शायद बड़ा हो गया।'
* * * * * * * * *
बारिश की टिप-टिप बूँदें थी,
कुछ चेहरे पे, कुछ हाथों पर,
मीठी-मीठी, प्यारी-सी थीं,
रिमझिम फुहार में बाहें खोले
मैं स्वछन्द निकला था,
कुछ लोग रह चलते अचानक
मुझे देखकर हँस पड़े,
और शायद कह गए-
'अब मैं शायद बड़ा हो गया।'
मौसम भी खुला-खुला-सा था,
अन्दर से कुछ उमड़ा-सा था,
खुली सड़क पर बाहें फैलाए
मैं उन्मुक्त दौड़ा था,
राह चलते बच्चे अचानक
मुझे देखकर हँस पड़े,
और सोच में डाल गए-
'अब मैं शायद बड़ा हो गया।'
* * * * * * * * *
बारिश की टिप-टिप बूँदें थी,
कुछ चेहरे पे, कुछ हाथों पर,
मीठी-मीठी, प्यारी-सी थीं,
रिमझिम फुहार में बाहें खोले
मैं स्वछन्द निकला था,
कुछ लोग रह चलते अचानक
मुझे देखकर हँस पड़े,
और शायद कह गए-
'अब मैं शायद बड़ा हो गया।'
Wednesday, January 28, 2009
प्रेरणा
शुभ्र, सौम्य मूर्त्ति राजती जो मन में,
स्नेह मधुर उड़ेलती जीवन में।
उज्ज्वल, स्नेहमयी, मधुहासिनी प्रिय
शरद ज्योत्स्ना-सी जीवन में।
पग पथ-विचलित जब घन अन्ध-तिमिर में
हाथ थामती मेरा जीवन में।
जब ध्येयहीन मैं निज जीवन-पथ में
विश्वास भरती मेरे जीवन में।
हृदय विकल दग्ध जब हृदयानल से
ताप दुःसह हरती जीवन में।
चित्रखचित मम हृदयाकाश में अविचल
शीतल प्रकाश भरती जीवन में।
हर क्षण शुभ, मंगल सिद्ध भवे सब,
यह वरदान देती जीवन में।
परिमल, प्रांजल, प्रिय, शुभ भावमयी
हर्षित विहान भरती जीवन में।
कोमल, सहज, दृढ़, गर्वित, उर्ध्वमयी,
विश्वास अभय भरती जीवन में।
छन्दमयी- नानाविध सौन्दर्यमयी,
काव्यप्रेरणा मेरी जीवन में।
वरद् सौम्य शुभ विहसित प्रतिमा-सी,
मुझे साकार करती जीवन में।
स्नेह मधुर उड़ेलती जीवन में।
उज्ज्वल, स्नेहमयी, मधुहासिनी प्रिय
शरद ज्योत्स्ना-सी जीवन में।
पग पथ-विचलित जब घन अन्ध-तिमिर में
हाथ थामती मेरा जीवन में।
जब ध्येयहीन मैं निज जीवन-पथ में
विश्वास भरती मेरे जीवन में।
हृदय विकल दग्ध जब हृदयानल से
ताप दुःसह हरती जीवन में।
चित्रखचित मम हृदयाकाश में अविचल
शीतल प्रकाश भरती जीवन में।
हर क्षण शुभ, मंगल सिद्ध भवे सब,
यह वरदान देती जीवन में।
परिमल, प्रांजल, प्रिय, शुभ भावमयी
हर्षित विहान भरती जीवन में।
कोमल, सहज, दृढ़, गर्वित, उर्ध्वमयी,
विश्वास अभय भरती जीवन में।
छन्दमयी- नानाविध सौन्दर्यमयी,
काव्यप्रेरणा मेरी जीवन में।
वरद् सौम्य शुभ विहसित प्रतिमा-सी,
मुझे साकार करती जीवन में।
Thursday, January 1, 2009
नववर्ष
जाग उठी है भोर सुनहरी
भागा अंतरमन का तम है
भागा अंतरमन का तम है
पुलकित हर्षित धूप रुपहली
छकित हुआ ह्रदय उपवन है।
अरुण उदित दीप्त अम्बर में
विभा विकीर्ण नभ के उपवन में
तन-मन कम्पित अति उमंग से
कुसुम खिले जग के कानन में।
बेला नव उत्साह ग्रहण की
हो रहा मन में गुंजन है
प्रेरित हों उस आदिशक्ति से
करते जिसका हम वंदन हैं।
नव वर्ष में भवे हर्ष नव
जीवन में उत्कर्ष भवे तव
दिवस प्रहर हर क्षण हो सुन्दर
मुदित मन में हो मंगल रव।
संवत् सिद्ध भवे नित उज्जवल
छाप अमिट छोडे तव पदतल
भाव सुमन हैं तुझको अर्पित
दर्शित हो केवल उदयाचल।
रचता मन में गीत मनोहर
स्मृति विगत हर्षित यह अंतर
भाव कोकिला पंचम गाये
मंगल उर गाता संग सस्वर।
मंजुल मुदित उल्लसित जीवन
करते निज शुभ भाव समर्पण
मंगलमय यह वर्ष मित्रवर
समय बने उज्जवल सुन्दरतम।
छकित हुआ ह्रदय उपवन है।
अरुण उदित दीप्त अम्बर में
विभा विकीर्ण नभ के उपवन में
तन-मन कम्पित अति उमंग से
कुसुम खिले जग के कानन में।
बेला नव उत्साह ग्रहण की
हो रहा मन में गुंजन है
प्रेरित हों उस आदिशक्ति से
करते जिसका हम वंदन हैं।
नव वर्ष में भवे हर्ष नव
जीवन में उत्कर्ष भवे तव
दिवस प्रहर हर क्षण हो सुन्दर
मुदित मन में हो मंगल रव।
संवत् सिद्ध भवे नित उज्जवल
छाप अमिट छोडे तव पदतल
भाव सुमन हैं तुझको अर्पित
दर्शित हो केवल उदयाचल।
रचता मन में गीत मनोहर
स्मृति विगत हर्षित यह अंतर
भाव कोकिला पंचम गाये
मंगल उर गाता संग सस्वर।
मंजुल मुदित उल्लसित जीवन
करते निज शुभ भाव समर्पण
मंगलमय यह वर्ष मित्रवर
समय बने उज्जवल सुन्दरतम।
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